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________________ 244 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 2 ***************************************************** ***** साधक के हाथ, पांव, आँखें और मुंह संयमित रहते हैं। इसका साधक शूरवीर होता है। वह सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है। विवेचन - दूसरे महाव्रत की पांच भावनाएं हैं। इनमें से प्रथम भावना-अनुविचिन्त्य भाषा समिति-सम्यक् विचारपूर्वक-समझ-सोचकर वचन-व्यवहार करने सम्बन्धी है। सूत्रकार कहते हैं कि दूसरे संवर के आराधक श्रमण का वचन-व्यवहार भी संवरट्टे' संवर साधना में उपयोगी 'परमट्टे' - मोक्ष साधना के अनुकूल होता है। ___वचन योग से युक्त मनुष्य को प्रयोजनवश दूसरे मनुष्यों से बोलना पड़ता है। संसार-त्यागी साधु को भी गृहस्थों से वचन-व्यवहार करना पड़ता है। वह वचन-व्यवहार यदि बिना सोचे-समझे किया जाये, तो पापकारी होता है। सोच-समझकर विवेक पूर्वक बोला हुआ सत्य ही निर्दोष होकर संवर का साधक हो सकता है। सदोष सत्य मारक भी हो जाता है, किन्तु निर्दोष सत्य तो तारक ही होता है। दूसरी भावना-क्रोध-त्याग . बिइयं कोहो ण सेवियव्वो, कद्धो चंडिक्किओ मणओ अलियं भणेज, पिसणं भणेज, फरुसं भणेज, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज, कलहं करिज्जा, वेरं करिज्जा, विकहं करिज्जा, कलहं वे विकहं करिजा, सच्चं हणेज, सीलं हणेज, विणयं हणेज, सच्चं सीलं विणयं हणेज, वेसो हवेज, वत्थु हवेज, गम्मो हवेज, वेसो वत्थु गम्मो हवेज, एयं अण्णं च एवमाइयं भणेज कोहग्गिसंपलित्तो तम्हा कोहो ण सेवियव्यो। एवं खंतीइ भाविओ भवइ अंतरप्या संजय-कर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। शब्दार्थ - बिइयं - द्वितीय, कोहो - क्रोध, ण सेवियब्यो - नहीं करना, कुद्धो - क्रोधी, चंडिक्किओ - चाण्डाल रूप, मणुसो - मनुष्य, अलियं भणेज - झूठ बोलता है, पिसुणं भणेज - पिशुनकारी अथवा चुगली करने वाला वचन बोलता है, फरुसं भणेज - कठोर वचन बोलता है, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज्ज - मिथ्या, पिशुन और कठोर तीनों एक साथ बोलता है, कलहं करिज्जा - कलह करता है, वेरं करिज्जा - वैर करता है, विकहं करिज्जा - विकथा करता है, कलह वेरं विकहं करिजा - कलह, वैर और विकथा तीनों एक साथ करता है, सच्चं हणेज - सत्य का हनन करता है, सीलं हणेज - शील का हनन, विणयं हणेज्ज - विनय का हनन, सच्चं सील विणयं हणेज - सत्य, शील और विनय-तीनों का एक साथ हनन, वेसो हवेज - अप्रिय होता है, वत्थु हवेज - दोषों का निवास-स्थल होता है, गम्मो हवेज - गम्य अर्थात् अनादरणीय होता है, वेसो वत्थु गम्मो हवेज - अप्रिय, दोषों का स्थान और तिरस्कार का पात्र होता है एयं - ये, अण्णं - अन्य, एवमाइयं - इस तरह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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