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________________ तीसरी भावना-लोभ-त्याग 245 *#######################******************************* की, भणेज - कहता, कोहग्गिसंपलित्तो - क्रोधाग्नि से जलता है, तम्हा - इसलिए, कोहो - क्रोध, ण सेवियव्यो - नहीं करना, एवं - इस प्रकार, खंतीइ - क्षमा गुण, भाविओ - भावित, भवइ - होना, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणो - वह पुरुष कर, चरण, नेत्र और मुख का संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न। भावार्थ - दूसरी भावना 'क्रोध-निग्रह' है। साधक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी-मनुष्य चांडिक्य-प्रचण्ड-रौद्र रूप हो जाता है। क्रोधावेश में वह झूठ भी बोलता है, पिशुनता-चुगली भी करता है और कटु एवं कठोर वचन भी बोलता है। वह मिथ्या, पिशुन और कठोर ये तीनों प्रकार के वचन एक साथ बोलता है। क्रोधी-मनुष्य क्लेश करता है, वैर करता है, विकथा करता है। क्लेश, वैर और विकथा-ये तीनों एक साथ भी करता है। वह सत्य का हनन करता है। शील का हनन करता है। क्रोधी-मनुष्य दूसरों के लिए द्वेष का.पात्र (अप्रिय) होता है, दोषों का घर होता है और तिरस्कृतअपमानित होता है। वह अप्रिय, दोषों का घर और तिरस्कृत-इन तीनों का पात्र होता है। क्रोधाग्नि से जलता हुआ मनुष्य, उपरोक्त दोष और ऐसे अन्य अनेक दोषपूर्ण वचन बोलता है। इसलिए दूसरे महाव्रत के पालक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध का त्याग कर, क्षमा को धारण करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। इस प्रकार क्रोध का निग्रह कर क्षमा-गुण को धारण करने वाले साधक के हाथ, पांव, आँखें और वचन, संयम में स्थित-पवित्र रहते हैं। ऐसा शूरवीर साधक सत्यवादी एवं सरल होता है। यह क्रोध-निग्रह रूप दूसरी भावना है। क्रोधावेश में बोला हुआ सत्य भी पापाश्रव का कारण होता है। तीसरी भावना-लोभ-त्याग - तइयं लोभोण सेवियव्वो, 1. लुद्धो लोलो भणेज अलियं खेत्तस्स व वत्थुस्स व कएण 2. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, कित्तीए लोभस्स व कएण 3. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, इड्डीए व सोक्खस्स व कएण 4. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, भत्तस्स व पाणस्स व कएण 5. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, पीढस्स व फलगस्स व कएण 6. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, सेज्जाए व संथारगस्स व कएण 7. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, वत्थस्स व पत्तस्स व काएण 8. लुद्धो लोलो भणेज अलियं, कंबलस्स व पायपुंछणस्स व कएण 9. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, सीसस्स व सिस्सीणी व कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसुकारणसएसु लुद्धो लोलो भणेज अलियं, तम्हा लोभो ण सेवियव्वो, एवं मुत्तिए . भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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