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________________ 246 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ . .. *****************************************************-*-*-*-*-*-*-***** शब्दार्थ - तइयं - तृतीय, लोभो - लोभ का, ण सेवियव्यो - सेवन नहीं करना, लुद्धो - लोभी, लोलो - चंचल, भणेज - बोलता है, अलियं - झूठ, खेत्तस्स - क्षेत्र, य - और वत्थुस्स - वास्तु-मकान, कित्तीए - कीर्ति, लोभस्स - लोभ, इड्डीए - ऋद्धि, सोक्खस्स. - सुख, भत्तस्स - भात-आहार, पाणस्स - पानी, पीढस्स - पीठ, फलगस्स - फलक, सेजाए - शय्या, संथारगस्स - संस्तारक, वत्थस्स - वस्त्र, पत्तस्स - पात्र, कंबलस्स - कम्बल, पायपुंछणस्स - पादपोंछन, सीसस्सशिष्य, सिस्सीणीए - शिष्यणी, अण्णेसु - अन्य बहुत-से, एवमाइसु - इसी प्रकार के, बहुसु - बहुत-से, कारणसएसु - सैकड़ों कारणों से, भणेज - बोलता है, अलियं - झूठ, तम्हा - इसलिए, लोभो - लोभ का, ण सेवियव्यो - सेवन नहीं करना, एवं - इस प्रकार, मुत्तीए - मुक्त अर्थात् लोभत्याग, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजय-कर-चरण-णयण-वयणोहाथ, पैर, नैत्र और मुख का संयम वाला, सूरो-शूरवीर, सच्चजवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न। भावार्थ - लोभ-त्याग रूप तीसरी भावना है। सत्य महाव्रत के पालक को लोभ से दूर रहना चाहिए। लोभ से प्रेरित मनुष्य का सत्य व्रत टिक नहीं सकता। वह झूठ बोलने लगता है। लोभ से ग्रसित मनुष्य क्षेत्र, वास्तु, कीर्ति (मान-प्रतिष्ठा) ऋद्धि, सुख, खान-पान, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, आसन, शयन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, शिष्य और शिष्या के लिए और इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों से झूठ बोलता है। इसलिए मिथ्या-भाषण के मूल इस लोभ का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए। इस प्रकार लोभ का त्याग करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है। उस साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख संयम से शोभित होते हैं। वह शूरवीर शाधक, सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है। विवेचन - लोभ-साधक वचन भी सत्य व्रत का घातक होता है। अतएव लोभ-त्यागी ही सच्चा महाव्रती हो सकता है। चाहे क्रोध हो या लोभ, भावों में क्रोधादि का प्रवेश होते ही आँखों एवं चेहरे पर उसका संग झलक उठता है और हाथ-पांव एवं शरीर में कम्पन भी होती है। क्रोधादि भावों का हाथों के संकेत और वचन से उच्चारण होता है तथा तदनुरूप चरण भी उठते हैं। . चौथी भावना-भय त्याग चउत्थं ण भीइयव्वं, भीयंखु भया अइंति लहुयं, भीओ अबितिजओ मणूसो, भीओ भूएहिं धिप्पड़, भीओ अण्णं वि हु भेसेज्जा, भीओ तवसंजमं वि हु मुएज्जा, भीओ य भरं ण णित्थरेजा सप्पुरिसणिसेवियं य मग्गं भीओ ण समत्थो अणुचरित्रं, तम्हा ण भीइयव्वं / भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा अण्णस्स वा एवमाइयस्स एवं धेजेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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