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________________ 201 ************ परिग्रह पाप का कटुफल *********************************************** अनन्त, दीहमद्धं - बहुत लम्बे समय तक, चाउरंतसंसारकंतारं - चार गति वाले संसार रूपी घोर वन में, अणुपरियति - परिभ्रमण करते रहते हैं, जीवा - जीव, लोहवससण्णिविट्ठा - लोभ के वश परिग्रह के संचय में अत्यन्त आसक्त, एसो सो - यह, परिग्गहस्स - परिग्रह का, फलविवाओ - फल विपाक है, इहलोइओ - इहलौकिक, परलोइओ - पारलौकिक, अप्पसुहो - अल्प सुख, बहुदुक्खो - बहुत दुःखों से परिपूर्ण, महब्भओ - महाभयंकर, बहुरयप्पगाढो - बहुत पापों से युक्त, दारुणो - दारुण, कक्कसो - कर्कश, असाओ - असंगत रूप हैं, वाससहस्सेहिं - हजारों वर्षों के पश्चात्, मुच्चई - छुटकारा, अवेयइत्ता - इसका फल भोगे बिना, मोक्खोत्ति ण अस्थि - छुटकारा नहीं हो सकता, णायकुलणंदणो - ज्ञातकुलनन्दन, जिणो - भगवान् ने, वीरवरणामधिज्जो - वीरवर नाम वाले अर्थात् भगवान् महावीर, कहेसी - कहा है, परिग्गहस्स - परिग्रह का, फलविवागं - फल-विपाक, मोक्खवरमोत्तिमगस्वस - श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का, फलिहभूओ - अर्गला रूप हैं, चरिमं - अंतिम, अहम्मदारं - अधर्मद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। .. भावार्थ - परिग्रही जीव परलोक में भी नष्ट होता है। उसकी सुख-शान्ति नष्ट हो जाती है। वह कारमय नरक स्थान में प्रवेश करता है। उस महामोहनीय से मोहित मति वाले जीव में अज्ञानरूपी अन्धकार भी गाढ़रूप से छाया रहता है। ऐसे महापरिग्रही जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीर, प्रत्येक शरीर, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूर्छिम, उद्भिज और औपपातिक में तथा तरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यादि योनियों में बार-बार जन्म-मरण करते रहते हैं। लोभ के वशीभूत होकर और परिग्रह के संचय में अत्यन्त आसक्त होकर जीव इस चार मति वाले अनादि अनन्त संसार रूपी घोर अटवी में दीर्घकाल पर्यन्त परिभ्रमण करते रहते हैं। परिग्रह के पाप का यह इहलौकिक और परलौकिक फलविपाक है। परिग्रह में सुख तो अत्यन्त अल्प है, किन्तु दुःख अत्यन्त घोर है और अधिकाधिक है। यह पाप महान् भयानक बहुत से पापों से भरा हुआ, दारुण, कर्कश एवं अशांति कारक है। हजारों वर्षों तक दुःख भोगने के बाद इससे छुटकारा होता है। बिना फल-भोग के छुटकारा नहीं होता। ___ इस प्रकार परिग्रह के पाप का कटुतम फल-विपाक, ज्ञातृकुल-नन्दन, महान् आत्मा जिनेश्वर भगवान् महावीर ने कहा है। अनेक प्रकार के मणि, रत्न और स्वर्णादि रूप द्रव्य संचयरूप परिग्रह / नामक पाँचवाँ आस्रवद्वार है। यह परिग्रह का पाप उत्तमोत्तम ऐसे मोक्ष मार्ग के लिए अर्गला के समान बाधक है। - यह परिग्रह नामक पाँचवा अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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