SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 200 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 1 अ०५ **************************************************************** कलाएँ सम्यग्दर्शन के अभाव में मिथ्यात्व एवं आश्रव-वर्द्धक तो है ही। सूत्रकार ने इनका सम्बन्ध परिग्रह प्राप्ति से जोड़ा है। वैसे ये प्रतिष्ठा प्राप्ति की साधन भी होती हैं और मोहवर्द्धक भी। बिना आत्मोत्थान के सभी कलाएँ संसार-वर्द्धक होती है। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि - . "कला बहत्तर जगत में, जा में दो सिरदार। एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार॥" जीवन-निर्वाह की कला भी वैसी हो, जो अल्प आरम्भ युक्त हो। आसक्ति भी अल्प हो और आत्मोत्थान में बाधक भी नहीं हो, अन्यथा सभी कलाएँ क्षणिक सुख और चिर दु:खदायक हैं। . . परिग्रह पाप का कटुफल .. .. परलोगम्मि य णट्ठा तमं पविट्ठा महयामोहमोहियमई तिमिसंधयारे तसथावरसुहुमबायरेसु पज्जत्तमपज्जत्तग-साहारण-पत्तेय सरीरेसु य अण्डय-पोययजराउय-रसय-संसेइम-सम्मुच्छिम-उब्भिय-उववाइएसु य णरय-तिरिय-देव-मणुस्सेसु जरामरणरोगसोगबहुलेसु पलिओवम-सागरोक्माइं अणाइयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटुंति जीवा लोहवससण्णिविट्ठा। एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ ण अवेयइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधिज्जो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं। एसो सो परिग्गहो पंचयो उ णियमा णाणामणिकणगरयण-महरिह एवं जाव इमस्स मोक्खवरमोत्तिमग्गस्स फलहभूओ। चरिमं अहम्मदारं सम्मत्तं॥त्ति बेमि॥ शब्दार्थ - परलोगम्मि - परलोक में भी, णट्ठा - विनाश को प्राप्त होते हैं, तमं - अंधकारमय नरक में, पविट्ठा - प्रवेश करते हैं, महयामोहमोहियमई - महामोहनीय से मोहित मति वाले जीव, तिमिसंधयारे - जिनमें अज्ञान रूपी अंधकार भरा हुआ है, तसथावरसुहुमबायरेसु - त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर, पज्जत्तमपज्जत्तगसाहारणपत्तेयसरीरेसु - पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर में, अण्डयपोययजराउयरसयसंसेइमसमुच्छिमउबिभयउववाइएसु - अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, सम्मूर्च्छिम, उद्भिज और औपपातिक में, णरयतिरियदेवमाणुस्सेसु - नरक, तिर्यंच,' देव और मनुष्य आदि योनियों में, जरामरणरोगसोगबहुलेसुः- जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाला, पलिओवमसागरोवमाई - पल्योपम और सागरोपम तक, अणाईयं - इस अनादि, अणवयग्गं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy