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________________ ११८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० ३.. **************************************************************** अटवी-वन में, दुग्गवासी - दुर्गम स्थान-अथवा दुर्ग में रहने वाले, कालहरितरत्तपीतसुक्किल - काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत वर्ण वाले, अणेगसयचिंध-पट्टबद्धा - सैकड़ों चिह्नपट अपने मस्तक पर बांधने वाले, परविसए - दूसरों के देशों का, अभिहणंति - घात करते हैं, लुद्धा - लुब्ध बने हुए, धणस्स कज्जे - धन को चुराने के लिए। भावार्थ - उपरोक्त युद्धप्रिय वीरों के अतिरिक्त अन्य पैदल चल कर चोरी करने वाले चोरों के समूह भी होते हैं। कई ऐसे सेनापति भी होते हैं, जो चोरों को चोरी करने के लिए प्रोत्साहन देते हैं। यह चोरों का समूह वन में तथा दुर्गम स्थानों में या दुर्ग में रहते हैं। उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत वर्ण के सैकड़ों चिह्नपट्ट होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर धारण करते हैं। दूसरों के धन में लुब्ध बने हुए वे चोर-समूह, चोरी करने के लिए दूसरों के प्रदेश में घुस कर धन का. हरण करते हैं और . लोगों का घात करते हैं। समुद्री डाके रयणागरसागरं उम्मीसहस्समाला-उलाउल-वितोयपोत-कलकलेंत-कलियं पायालसहस्स* वायवसवेगसलिल-उद्धम्ममाणदगरयरयंधकारं वरफेणपउर-धवलपुलंपुल-समुट्ठियट्टहासं मारुयविच्छुभमाणपाणियं जलमालुप्पीलहुलियं अवि य समंतओ खुभिय-लुलिय-खोखुब्भमाण-पक्खलिय-चलिय-विउलजलचक्कवालमहाणईवेगतुरियआपूरमाणगंभीर विउल-आवत्त-चवल-भममाणगुप्पमाणुच्छलंत-. पच्चोणियत्त-पाणियपधावियखर-फरु स-पयंडवाउलियसलिल-फुटुंत वीइकल्लोलसंकुलं महामगर-मच्छ-कच्छभोहार-गाह-तिमि-सुंसुमार-सावय-समाहयसमुद्धायमाणकपूर-घोरपउरं कायरजण-हियय-कंपणं घोरमारसंतं महब्भयंभयंकर पइभयं उत्तासणगं अणोरपारं आगासं चेव णिरवलंबं। शब्दार्थ - रयणागरसागरं - रत्नाकर सागर-रत्नों के भण्डार रूप समुद्र, उम्मीसहस्समाला - : हजारों लहरों-तरंगों की पंक्तियों से, उलाउलवितोयपोतकलकलेंतकलियं - व्याकुल होने के कारण भग्न हुए-या मीठा जल चुक जाने से जलयान के यात्री बहुत कोलाहल करते हैं, उस कोलाहल से युक्त, पायालसहस्स - हजारों पाताल-कलशों के, वायसवेग - वायु से वेग युक्त हुए, सलिलउद्धम्ममाणदगरयरयंधकारं - पानी की उछलती हुई तरंगों के समूह के अन्धकार हो गया है जहाँ, वरफेणपउरधवलपुलंपुल - स्वच्छ श्वेत ऐसे प्रचुर फेन से निरन्तर, समुट्ठियट्टहासं - अट्टहास उत्पन्न होने से, मारुय - वायु से, विच्छुभमाणपाणियं - क्षुब्ध-डोलायमान बना हुआ पानी, *"पायालकलससहस्स" - पाठ, पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. वाली प्रति में है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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