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________________ १५६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०४ जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, णरपवरे, पुरिसवरे, पुरिससिहे, पुटिसवग्धे, पुरिसासीविसे, पुरिसपुंडरीए, पुरिसवरगंधहत्थी।" शब्दार्थ - दयाप्राप्त - जिसके हृदय में दया-अनुकम्पा का वास है, सीमंकर - मर्यादा स्थापित करने वाला, सीमन्धर - मर्यादा पालक, , खेमंकर - शांति-कारक, खेमन्धर - शांति को स्थिर करने वाला, मनुष्यों का इन्द्र - मानवेन्द्र जनपद-पिता, जनपद-पालक, जनपद-पुरोहित, सेतुकर-अद्भुत कार्य करने वाला, विपत्तियों का पाल या बांध के समान अवरोधक अथवा कठिनाइयों के महानद पर से . सरलता से पार लगाने वाले पुल के समान), केतुकर - अतिश्रेष्ठ नर रूपी निधि का स्वामी मनुष्यों में ध्वजा के समान, नरप्रवर - पुरुषों में प्रधान-पुरुषोत्तम, पुरुष सिंह, पुरुष-व्याघ्र, पुरुष-आशीविष कोप को सफल करने वाले आशीविष सर्प के समान, पुरुष-पौंडरीक - पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान पुरुषवर गंध-हस्ती पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान उत्तम-वैरियों को नष्ट करने वाला। इन विशेषणों में 'नरवृषभ' विशेषण देने के बाद सूत्रकार ने 'मरुयवसहकप्पा' विशेषण लगाकर अन्य प्रान्तों के वृषभों से भी मरुधरा के वृषभ की विशेषता व्यक्त की है। इससे-'मारवाड़ के धोरी' की श्रेष्ठ मनुष्यों की दी जाती हुई उपमा कितनी प्राचीन है-यह स्पष्ट हो रहा है। - उत्तम राजाओं के विशेषण बतला रहे हैं कि - ऐसे श्रेष्ठ नर जिस राज्यधुरा के धारक हों, वह राज्य और वहाँ की प्रजा सुखी रहती है। - चक्रवर्ती के शुभ लक्षण ___रवि-ससि-संख-वरचक्क-सोत्थिय-पडाग-जव-मच्छ-कुम्म-रहवर-भग-भवणविमाण-तुरय-तोरण-गोपुर-मणिरयण-णंदियावत्त-मुसल-जंगल-सुरइयवरकप्परुक्क-मिगवइ-भद्दासण-सुरूविथूभ-वरमउड-सरिय-कुंडल-कुंजर-वरवसहदीव-मंदर-गरुलझय-इंदकेउ-दप्पण-अट्ठावय-चाव बाण-णक्खत्त-मेह-मेहलवीणा-जुग-छत्त-दाम-दामिणि-कमंडलु-कमल-घंटा-वरपोय-सुई-सागर-कुमुदागरमगर-हार-गागर-णेउर-णग-णगर-वइर-किण्णर-मयूर-वररायहंस-सारस-चकोरचक्कवाग-मिहुण-चामर-खेडग-पव्वीसग-विपंचि-वरतालियंट-सिरियाभिसेयमेइणि-खग्गं-कुस-विमल-कलस-भिंगार-वद्धमाणग-पसत्थउत्तमविभत्तवरपुरिसलक्खणधरा। शब्दार्थ - रवि - सूर्य, ससि - चन्द्रमा, संख - शंख, वरचक्क - प्रधान चक्र, सोत्थिय - स्वस्तिक, पडाग - पताका, जव - यव-जौ, मच्छ - मत्स्य, कुम्म - कुर्म-कछुआ, रहवर - श्रेष्ठ रथ, भग - योनि, भवण - भवन, विमाण - देव-विमान, तुरय - घोड़ा, तोरण - तोरण, गोपुर - नगर का For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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