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________________ 326 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०.२ अ०५ **************************************************************** तीसरी भावना-घ्राणेन्द्रिय-संयम तइयं घाणिदिएण अग्घाइय गंधाइं मणुण्णभद्दगाई। किं ते? जलय-थलयसरस-पुष्फ-फल-पाण-भोयण-कुट्ठ-तगर-पत्त-चोयदमणग-मरुय-एला-रसपिक्कमंसि-गोसीस-सरस-चंदण-कप्पूर-लवंग-अगर-कुंकुम-कक्कोल-उसीरसेयचंदण-सुगंधसारंग-जुत्तिवर-धूववासे उउय-पिंडिम-णिहारिमगंधिएसु अण्णेसु य एवमाइएसु गंधेसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण सजियव्वं जाव ण सई च मइं च तत्थ कुज्जा। __ शब्दार्थ - तइयं - तीसरी, पाणिदिएण - घ्राणेन्द्रिय से, अग्याइय - सूंघ कर, गंधाई - गन्धों को, मणुण्णभद्दगाई - मनोज्ञ और उत्तम, किं ते - वे कौन से हैं, जलय-थलय-सरस-पुष्फ - जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले उत्तम फूल, फल-पाण-भोयण - फल पानी और भोजन, कुट्ठ - कमल का पराग, तगर - तगर, पत्त - तमाल पत्र, चोय - छिलका, दमणग - दमनक-एक प्रकार का फूल, मरुयमरुआ, एणारस - इलायची का रस, पिक्कमंसि - पकी हुई मांसी, गोसीस-सरस-चंदण - गोशीर्ष नामक सरस चन्दन, कप्पूर - कपूर, लवंग - लौंग, अगर - अगर, कुंकुम - कुंकुम, कक्कोल - कक्कोल, उसीर - वीरण-खश, सेयचंदण - श्वेत चन्दन-मलय चन्दन, सुगंधसारंगजुत्तिवरधूववासे - इन उत्तम गंध वाले पदार्थों का जिसमें सम्मिश्रण है ऐसे धूप की सुगन्ध को, उउयपिंडिमणिहारिमगंधिएसु- ऋतु के अनुसार उत्पन्न फूल जिनका गन्ध बहुत दूर तक फैलता है उनके गंध को, अण्णेसु - दूसरे, य - और, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, गंधेसु - गन्ध वाले पदार्थों को सूंघ कर, मणुण्णभद्दएसु - मनोज्ञ और श्रेष्ठ, ण तेसु समणे सज्जियव्वं - उनमें साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, जाव - यावत्, सइ-स्मरण, य-और, मई - विचार, तत्थ - उनका, ण कुज्जा-नहीं करना चाहिए। ___भावार्थ - तीसरी भावना घ्राणेन्द्रिय-संवर है। मनोहर उत्तम सुगन्धों में आसक्त नहीं होना चाहिए। वे सुगन्ध कौन-से हैं ? जल और स्थल में उत्पन्न सरस पुष्प और फल तथा भोजन, पानी, कमल का पराग, तगर, तमाल-पत्र, छाल, दमनक, मरुआ, इलायची, पक्वमांसी (एक सुगन्धित द्रव्य) गोशीर्ष नामक सरस चन्दन, कपूर, लोंग, अगर, कुंकुम (केसर) कक्कोल, वीरण (खश) श्वेत चन्दन, (मलय चन्दन) उत्तम गन्धवाले पदार्थों के मिश्रण से बने हुए धूप की सुगन्ध, ऋतु के अनुसार उत्पन्न पुष्प, जिनकी गन्ध दूर तक फैलती है, इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं श्रेष्ठ गन्ध वाले पदार्थों की गन्ध पर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए यावत् उन गन्धों का स्मरण एवं चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। .. पुणरवि घाणिदिएण अग्याइय गंधाइं अमणुण्णपावगाई। किं ते? अहिमडअस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग-सुणग-सियाल-मणुय-मजार-सीह-दीविय-मय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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