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________________ 325 द्वितीय भावना-चक्षुरिन्द्रिय-संयम **************************************************************** विवेचन - दूसरी भावना चक्षु-इन्द्रिय का विषय-रूपासक्ति का त्याग करना है। रूप आँखों का विषय है दृष्टि के सामने विविध प्रकार के रूप सहज ही आते रहते हैं। किन्तु सुन्दर एवं मनोहर रूपों को चाह कर देखना, देखने के लिए जाना और देख कर अनुरक्त होना-रूप-रंजित होना, इस पांचवें महाव्रत को दूषित करना है। अतएव इस महाव्रत की रक्षा के लिए सुन्दरता पर किंचित् भी नहीं लुभाना चाहिए। पुणरवि चक्खिदिएण पासयिरूवाइं अमणुण्णपावगाइं। किं ते? गंडि-कोढिककुणि-उयरि-कच्छुल्ल-पइल्ल-कुज्ज-पंगुल-वामण-अंधिल्लग-एगचक्खु-विणिहयसप्पिसल्लग-वाहिरोगपीलियंविगयाणि मयगकलेवराणि सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं अण्णेसु य एवमाइएसु अमणुण्णपावगेसु ण तेसु समणेणं रूसियव्वं जाव ण दुगुंछावतिया वि लब्भा उप्पाएउं एवं चक्खिंदिय-भावणा भाविओं भवइ अंतरप्पा जाव चरेज धम्म। - शब्दार्थ - पुणरवि - फिर, चक्खिदिएण - चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा, पासिय - देखकर, रूवाई - .रूपों को, अमणुण्णपावगाइं - अमनोज्ञ और पापकारी, किं ते - वे कौन-से हैं, गंडि - गंडमाला का रोगी, कोढिक - कोढ़-ग्रस्त, कुणि - जिसका एक हाथ कटा हुआ हो, उयरि - जलोदर रोग वाला, कच्छुल्ल - जिसके सारे शरीर में दाद हो रहे हैं, पइल्ल - पैर के श्लीपद रोग वाला, कुज्ज - कूबड़ा, पंगुल - लंगड़ा, वामण - वामन-बौना, अंधिल्लग - जन्मान्ध, एगचक्खु - काना, विणिहय - फूटी आँखों वाला, सप्पि - पीठ में सर्पि रोग वाला, सल्लग - शूल रोग वाला, वाहिरोगपीलियं - व्याधि और रोगों से पीड़ित, विगयाणि - विकृत, मयग-कलेवराणि - मुर्दा-शरीर, सकिमिणकुहिक-जिसमें कीड़े . पड़ गये हैं और सड़ गया है ऐसा, दव्वरासिं - द्रव्यों के ढेर को, अण्णेसु - दूसरे, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, अमणुण्णपावएसु - अमनोज्ञ और घृणाजनक पदार्थ, तेसु - उनमें, समजेणं - साधु, ण रूसियव्वं - द्वेष नहीं करे, जाव - यावत्, ण दुगुंछावतिया वि लब्भा उप्पाएउं - घृणा उत्पन्न नहीं करना * चाहिए, एवं - इस प्रकार, चक्खिदियभावणा भाविओ - चक्षुइन्द्रिय की भावना से भावित, भवइ - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, चरेज धम्म - धर्म का आचरण करे। भावार्थ - मन को बुरे लगने वाले अशुभ दृश्यों को देखख कर मन में द्वेष नहीं लावे। वे अप्रिय रूप कैसे हैं? - गण्डमाला का रोगी, कोढ़ी, कटे हुए हाथ वाला या जिसका एक हाथ या एक पाँव छोटा हो, जलोदरादि उदर रोग वाला, दाद से विकृत शरीर वाला, पाँव में श्लीपद रोग हो, कूबड़ा, बौना, लंगड़ा, जन्मान्ध, काना, फूटी आँख वाला, सर्पिरोग वाला, शूल रोगी, इन व्याधियों से पीड़ित, विकृत-शरीरी, मृतक-शरीर जो सड़ गया हो, जिसमें कीड़े कुलबुला रहे हों और घृणित वस्तुओं के ढेर तथा ऐसे अन्य प्रकार के अमनोज्ञ पदार्थों को देख कर, साधु उनसे द्वेष नहीं करे यावत् घृणा नहीं लावे। इस प्रकार चक्षुइन्द्रिय सम्बन्धी भावना से अपनी अन्तरात्मा को प्रभावित करता हुआ-पवित्र रखता हुआ धर्म का आचरण करता रहे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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