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________________ ******************************************** 324 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ ******* पक्षी और उनके जोड़े क्रीड़ा कर रहे हैं, वरमंडव - उत्तम मण्डप, विविह - विविध प्रकार के, भवण - भवन, तोरण - तोरण, चेइय - चैत्य, देवकुल - देवकुल, सभा - सभा, प्पवा - प्याऊ, आवसह - परिव्राजकों के मठ, सुकयसयणासण - सुन्दर शय्या और आसन, सीय - पालकी, रह - रथ, सयड - शकट-गाड़े, जाण - यान, जुग्ग - युग्म, संदण - स्यन्दन, णरणारिगणे - स्त्री-पुरुषों के समूह, * सोमपडिरूव-दरिसणिज्जे - जो सौम्य और दर्शनीय हों, अलंकिय-विभूसिए - अलंकृत और विभूषित हों, पुवकयतवप्पभाव-सोहग्गसंपउत्ते - जो पूर्वकृत तप के प्रभाव से मनुष्यों के द्वारा माननीय हों, णड - नट, णट्टग - नर्तक, जल्लमल्ल - जल्लमल्ल, मुट्ठिय - मौष्टिक मल्ल, वेलंबग - विडम्बक, कहग - कथक, पवग - प्लवक, लासग - लासक, आइक्खग - आख्यायक, लंख - लंख, मंख - मंख, तुणइल्ल - तूणइल्ल, तुंबवीणि य - तुम्बवीणिक, तालयरपकरणाणि - तालचर आदि, बहुणि'विविध प्रकार के, सुकरणाणि - मनोहर खेल, अण्णेसु - दूसरे, एवमाइएसु - इसी प्रकार के, मणुण्णभद्दएसु - मनोज्ञ और मनोहर, रूवेसु - रूपों को, तेसु - उनमें, समणेणं - साधु को, ण सजियव्वं - आसक्त नहीं होना चाहिए, ण रजियव्वं - अनुरक्त नहीं होना चाहिए, जाव - यावत्, सई च मई - स्मरण और विचार, तत्थ - उनका, ण कुज्जा - नहीं करे। - भावार्थ - दूसरी भावना चक्षु-इन्द्रिय संवर है। सचित्त-स्त्री, पुरुष, बालक और पशु-पक्षी आदि, अचित्त-भवन, वस्त्राभूषण एवं चित्रादि, मिश्र-वस्त्राभूषण युक्त स्त्रीपुरुषादि के मनोरम तथा आह्लदकारी रूप आँखों से देख कर उन पर अनुराग नहीं लावे। काष्ठ, वस्त्र और लेप से बनाये हुए चित्र पाषाण और हाथी दाँत की बनाई हुई पांच वर्ण और अनेक प्रकार के आकार युक्त मूर्तियाँ देख कर मोहित नहीं बने। इसी प्रकार गूंथी हुई मालाएं, वेष्टित किये हुए गेंद आदि चपड़ी लाख आदि भर कर और एकदूसरे से जोड़ कर समूह रूप से बनाये हुए गजरे आदि और विविध प्रकार की मालाएँ देख कर आसक्त नहीं बने। नेत्र और मन को अत्यन्त प्रिय एवं सुख कर लगने वाले वनखंड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर, छोटे जलाशय, पुष्करिणी, बावड़ी, दीर्घिका, गुंजालिका, सरोवरों की पंक्ति, सागर, धातुओं की खानों की पंक्तियाँ, खाई, नदी, सरोवर, तालाब और नहर आदि तथा उत्पल-कमल, पद्म-कमल आदि विकसित एवं सुशोभित पुष्प, जिन पर अनेक प्रकार के पक्षियों के जोड़े क्रीड़ा कर रहे हैं, सजे हुए मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवकुल, सभा, प्याऊ, मठ, सुन्दर शयन-आसन, पालकी, रथ, शकट, यान, युग्म, स्यन्दन, स्त्रीपुरुषों का समूह जो अलंकृत एवं विभूषित हों, सौम्य एवं दर्शनीय हों और पूर्वकृत तप के प्रभाव से सौभाग्यशाली तथा आकर्षक हों, जनमान्य हों, इन सबको देख कर, साधु उनमें आसक्त नहीं बने। इसी प्रकार नट, नर्तक, जल्लमल्ल मौष्टिक, विडम्बक, कथक, प्लवक, लासक, आख्यायक, लंख मंख, तूणइल्ल, तूम्बवीणक और तालचर आदि अनेक प्रकार के मनोहर खेल करने वाले और इसी प्रकार के अन्य मनोहरी रूप देख कर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, न उसमें लीन होना चाहिए यावत् उन रूपों का स्मरण एवं चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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