________________ सम्पूर्ण संवरद्वार का उपसंहार एयाइं वयाइं पंच वि सुव्वय महब्बयाई हेउसयविचित्त-पुक्कलाई कहियाई अरिहंतसासणे पंच समासेण संवरा वित्थेरण उ पणवीसइ-समियसहिय-संवुडे सया जयण-घडण-सुविसुद्ध-दंसणे एए अणुचरियं संजए चरमसरीरधरे भविस्सइ। शब्दार्थ - एयाइं - ये, वयाई - व्रत, पंच - पाँच, सुव्वय - सुन्दर व्रत के धारण करने वाले, महव्वयाई - महाव्रत रूप, हेउसय-विचित्त पुक्कलाई - ये सैकड़ों विचित्र निर्दोष और पुष्ट युक्तियों द्वारा, कहियाई - कहे गये हैं, अरिहंतसासणे - तीर्थंकर भगवान् के शासन में, पंच - पाँच, समासेणसंक्षेप से, संवरा - संवर है, वित्थरेण - विस्तार से, पणवीसइ - पच्चीस होते हैं, समियसहिय - समिति आदि पांच-पांच भावनाओं सहित, संवुडे - कषाय तथा इन्द्रियों का निरोध, सया - सदा, जयणघडण - प्राप्त योग में प्रयत्न और अप्राप्त की प्राप्ति का उपाय करता रहता है, सुविसुद्धदंसणे - विशुद्ध ज्ञान-दर्शन संयुक्त होकर, एए - इस संवरों का, अणुचरिय - सेवन करके, संजए - साधु, चरमसरीरधरे - चरम शरीरी, भविस्सइ - हो जाएगा। भावार्थ - ये पांच सुव्रत, महाव्रत रूंप हैं / आहत-दर्शन में ये सैकड़ों निर्दोष एवं शुद्ध युक्तियों से परिपुष्ट हुए हैं। ये पांच संवरद्वार संक्षेप में कहे गये हैं। विस्तार से (भावनाओं से) ये ही पच्चीस होते हैं। जो सुसंयती, समिति आदि भावनाओं से युक्त होकर इनका पालन करते हैं, वे विशुद्ध ज्ञान और दर्शन युक्त होकर अपनी इन्द्रियों और कषाय का निरोध करते हैं तथा प्राप्त योग-महाव्रत के पालन और रक्षण में प्रयत्नशील रहते हैं। जो सुसंयत इनका पालन करेंगे, वे चरिमशरीरी हो जायेंगे। पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिजंति एगंतरेसु आयंबिलेसु णिरुद्धेसु आउत्त-भत्तपाणएणं अंगं जहा आयारस्स। ॥इइ पण्हवागरणं सुत्तं सम्मत्तं॥ . शब्दार्थ - पण्हवागरणे - प्रश्नव्याकरण सूत्र में, एगो - एक, सुयक्खंधो - श्रुतस्कन्ध है, दस - दस, अज्झयणा - अध्ययन, एक्कसरगा - एक समान, दससु- दस, दिवसेसु - दिनों में, उद्दिसिजति - उपदेश किया जाता है, एगंतरेसु - एकान्तर, आयंबिलेसु - आयम्बिल, णिरुद्धेसु - करते हुए, आउत्तभत्तयाणएणं - अन्तप्रान्त आहार करते हुए, इइ - यह, पण्हवागरणं - प्रश्नव्याकरण, सुत्तं - सूत्र, सम्मत्तं - समाप्त हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org