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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ ****************************************************************
(दीवार फोड़) कर चोरी करते हैं, कोई राज्य-भण्डार लूटते हैं (अथवा राज्य के नियम को लोप कर द्रव्य हरण करते हैं)। ऐसे चोरों को देश निकाला दिया जाता है और जनसाधारण से भी वे बहिष्कृत हो जाते हैं। चोर लोग अपना आतंक जमाने के लिए अथवा अपनी सुविधा के लिए वन को जला देते हैं। कोई चोर ग्राम को उजाड़ देते हैं। कोई डाकुओं का समूह नगर का ध्वंश कर देता है। कई बटमार हो कर पथिकों को लूटते हैं। कई चालाक मनुष्यों का ध्यान हटाने के लिए किसी घर में आग लगा देते हैं और जब लोग आग बुझाने जाते हैं, तब वे सूने घरों में लूट लेते हैं। कोई तीर्थयात्री. बनकर अन्य यात्रियों को लूट लेते हैं। कोई हाथ की सफाई में इतने चतुर होते हैं कि दृष्टि के सामने चोरी कर लेने पर भी मालूम नहीं होने देते। कई द्युत खेलकर चालाकी से दूसरों का धन मार डालते हैं। कई चुंगी अधिकारी, जनरक्षक या कोषाधिकारी होकर भी चोरी करते हैं। कई स्त्रीवेश में चोरी करते हैं अथवा स्त्रियों से चोरी करवाते हैं अथवा स्त्रियों को उड़ाकर और उन्हें बेचकर धन प्राप्त करते हैं। कोई पुरुष का हरण कर धन की मांग करते हैं। कई गांठ और जेब काटकर धन उड़ा लेते हैं। कई निर्दयी चोर, मनुष्यों के प्राण लेकर ही धन लेते हैं। .
कोई मंत्रादि से बुद्धि विभ्रम करके लूट लेते हैं। कोई अधिकारी अपने अधिकार का दबाव डालकर धन निकलवाते हैं। कोई मनुष्यों के मर्म स्थानों का मर्दन कर संज्ञा-शून्य करके लूट लेते हैं। कई चोर गुप्त रहकर (दूसरों के द्वारा) लूटते हैं। कोई गाय चुराते हैं, तो कोई घोड़े चुराते हैं। कुछ चोर दासियों को चुरा लेते हैं। कई चोर अकेले ही चोरी करते हैं और कई दूसरे को साथ लेकर चोरी करते हैं या अन्य चोरों से चोरी करवाते हैं। कुछ लोग स्वयं तो चोरी करने नहीं जाते, किन्तु चोरी करने वालों के सहायक बनते हैं। उन्हें भोजनादि देते हैं और चोर या चोरी के माल को छुपाते हैं। कुछ डाकू, व्यापारियों के सार्थ को लूटते हैं। कोई गीदड़ की बोली बोलकर भय उत्पन्न करके लूटते हैं। वे भागने और छुपने में इतने कुशल होते हैं कि राज्याधिकारियों की पकड़ में भी नहीं आते। चोर लोग अपने चौर्यकर्म में दक्ष एवं निपुण होते हैं। ये और अन्य अनेक प्रकार के चोर होते हैं। उन चोरों को दूसरों का द्रव्य हरने-अदत्त ग्रहण करने का त्याग नहीं होता।
विवेचन - उपरोक्त सूत्र में चोरों को चौर्यकर्म के प्रकार बतलाये हैं।
तित्थभेया - तीर्थयात्रियों को लूटने वाले अथवा तीर्थ स्थानों पर रहकर यात्रियों का धन चुराने वाले अथवा तीर्थ-यात्रियों के समूह से किसी को पृथक् कर लूटने वाले। तीर्थ स्थान को भंग कर तीर्थ के धन का हरण करने वाले। नदी आदि जलाशय के घाट को तोड़ने वाले।
खंडरक्ख - खण्डरक्षक-चुंगी अधिकारी। यहाँ विभागाधिकारी, जनरक्षक और कोषरक्षक भी ग्रहण किये जा सकते हैं। रक्षक पद पर रहकर जो चोरी करते-करवाते व घूस लेते हैं, वे इस भेद में चोर हैं।
स्त्रीचोर - स्त्रियाँ भी चोरी करती हैं। स्त्रियाँ स्त्रीसमूह में मिलकर अथवा पुरुष को मोहित कर
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