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________________ धन के लिए राजाओं का आक्रमण चोरी करती है अथवा स्त्री रूप बनाकर चोरी करना या स्त्रियों को उड़ाकर ले जाना और अन्यत्र बेचकर धन प्राप्त करना । पुरुषचोर - पुरुषों का हरण करके उसके घर वालों से धन प्राप्त करना । हडकारग - हठपूर्वक धन निकलवाने वाले । अपने अधिकार का प्रभाव डालकर अथवा किसी प्रकार का आरोप लगाकर धन हड़पना- घूस (लांच) लेना। गूढचोर - प्रच्छन्न चोर । स्वयं गुप्त रहकर चोरी करने वाला, जिस पर किसी का सन्देह भी नहीं हो सके । गोचोर - गाय का चोर । यहाँ गाय, बैल, भैंस आदि पशु भी ग्रहण किये जा सकते हैं और भेड़बकरे भी । कुक्कुट चोर भी इसी भेद में आ सकते हैं। दासीचोर - किसी रूपवान् दासी का हरण करने वाले अथवा स्त्री का हरण कर दासी रूप से रखने वाले अथवा दासी रूप में बेचकर धन प्राप्त करने वाले । इस भेद में दासचोर भी आ सकते हैं। गुलामों की बिक्री के चलते ऐसी चोरियाँ बहुत होती थीं। कहीं-कहीं बच्चे उड़ाने की घटनाएं भी होती हैं, यह भी इसी भेद में है । " Jain Education International १११ धन के लिए राजाओं का आक्रमण विउलबलपरिग्गहा य बहवे रायाणो परधणम्मि गिद्धा सए व दव्वे असंतुट्ठा. परविसए अहिहणंति ते लुद्धा परधणस्स कज्जे चउरंगविभत्त- बलसमग्गा णिच्छियवरजोहजुद्धसद्धिय-अहमहमिइदप्पिएहिं सेण्णेहिं संपरिवुडा पउमसगडसूइचक्कसागरगुरुलवूहाइएहिं अणिएहिं उत्थरंता अभिभूय हरंति परधणाई । शब्दार्थ - विउलबलपरिग्गहा - विपुल बल एवं परिवार से युक्त, बहवे - बहुत से, रायाणो राजा, परधणम्मि पराये धन में, गिद्धा - गृद्ध-आसक्त, सए व दव्वे - अपने द्रव्य में, असंतुट्ठा - असंतुष्ट, परविसए - दूसरों की भूमि के विषय में, अहिहणंति - आक्रमण करते हैं, हनन करते हैं, लुद्धा - गृद्ध, कज्जे- कार्य में, चउरंगविभत्तबलसमग्गा - हाथी, घोड़े, रथ और पदाति इस प्रकार चार अंगों से युक्त सेना का वर्ग बनाकर व्यूह रचकर, णिच्छियवरजोहजुद्धसद्धिय - निश्चित- विश्वस्त योद्धाओं को साथ लेकर लड़े जाने वाले, युद्ध में प्रीति रखने वाले, अहमहमिइदप्पिएहिं - "मैं वीर हूँ"इस प्रकार गर्वोक्ति से युक्त, सेण्णेहिं संपरिवुडा - सेना से युक्त होकर, पउमसगडसूइचक्कसागरगरुलवूहाइएहिं - पद्मव्यूह, शकटव्यूह, शूचिकाव्यूह चक्र व्यूह सागरव्यूह और गरुड़व्यूह आदि की रचना करते हैं, अणिएहिं - अपनी सेना द्वारा, उत्थरंता शत्रु सेना को चारों ओर से घेर लेते हैं, अभिभूय - पराजित करके, हरंति - हरण करते हैं, परधणाई - दूसरे के धन को । भावार्थ - राजा-महाराजा भी अपने प्राप्त धन एवं राज्य में संतुष्ट नहीं रहकर दूसरे राजाओं के - ************ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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