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________________ चौर्य-कर्म के विविध प्रकार . .. १०९ **************************************************************** शब्दार्थ - पुण - फिर, करेंति- करते हैं, चोरियं - चोरी, तक्करा - तस्कर-चोर, परदव्व-हरापराये द्रव्य का हरण करने वाले, छेया - चोरी में निपुण, कयकरणलद्धलक्खा - चौर्यकर्म करने के अभ्यासी एवं अवसर के जानने वाले, साहसिया - साहसिक-हिम्मतवान्, लहुस्सगा - तुच्छता से युक्त, अइमहिच्छ लोभगच्छा - अत्यन्त तृष्णा वाले, लोभ में गृद्ध, दद्दरओवीलका - बोलने और दूसरों पर विश्वास जमाने में चतुर, गेहिया - पराये धन में गृद्ध , अहिमरा - सामने आये हुए को मारने वाले, अणभंजग - लिये हुए ऋण को नहीं लौटाने वाले, भग्गसंधिया - सेंध लगाने वाले-अथवा दिये हुए वचन को तोड़ने वाले, रायट्ठकारी - राज्य-भंडार लूटने वाले अथवा राज्य के विरुद्ध आचरण करने वाले, विसयणिच्छूढलोकबज्झा - देश से निकाले हुए, जनता द्वारा बहिष्कृत, उद्दोहग - जनद्रोही, घातक अथवा वन को जलाने वाला, गामघायग - ग्राम को नष्ट करने वाले, पुरघायग - नगर विध्वंशकारी, पंथघायग - पथिकों को मारने वाले, आलीवग - घरों में आग लगाने वाले, तित्यभेया - तीर्थभेदकतीर्थ-यात्रियों को लूटने वाले अथवा नदी आदि के घाट को नष्ट करने वाले, लहुहत्थसंपठत्ता - हाथ की सफाई से लूटने वाले, जूइकरा - जुआ खेल कर धन हरने वाले, खंडरक्खत्थीचोर - खंड-रक्षक-चुंगी अधिकारी भी चोरी करते हैं और स्त्री भी चोरी करती है, पुरिसचोर - पुरुष भी चोर होते हैं, संधिच्छेयाघरों में सेंध लगाकर चोरी करते, गंथीभेयग - गाँठ खोलकर या जेब काटकर चोरी करने वाले, परधणहरण - पराये धन का हरण करने वाले, लोमावहारा - प्राण लूटकर धन लेने वाले, अक्खेवीमंत्रादि से अभिभूत-विवश करके-भ्रमित करके लूटने वाले, हडकारगा - बल से दबाकर-जबरन लूटने वाले. णिम्महग - मनुष्यों का मर्दन करके चोरी करने वाले, गढचोरग - गप्त रूप से-प्रच्छन्न रहकर लूटने वाले, गोचोरग - गाय-बैल चुराने वाले, अस्सचोरग - घोड़ों को चुराने वाले, दासीचोरग - दासी के चोर, एकचोर - अकेले ही चोरी करने वाले, ओकडग - दूसरे चोरों को भी साथ लेकर डाका.डालने वाले, संपदायग - चोरों को भोजनादि देकर चोरी के लिए प्रेरित करने वाले, उच्छियम - चोरों को या चोरी के धन को छुपाने वाले, सत्थघायग - सार्थ के घातक, बिलचोरी कारगा-गीदड़ आदि की बोली-बोलक-भय उत्पन्न कर लूटने वाले अथवा विश्वासोत्पादक वचन बोलकर लूटने वाले, णिग्गाहविप्पलुंपगा - जो राज्याधिकारियों से भी पकड़े नहीं जा कर तथा धोखा देकर बच जाते हैं, बहुविहतेणिक्कहरणबुद्धि - अनेक प्रकार से चोरी करने में जिनकी बुद्धि तीक्ष्ण है, एए - ये, अण्णेअन्य, एवमाइ - इसी प्रकार, परस्स दव्याहि - दूसरों के द्रव्य से, जे अविरया - जो विरत नहीं। ... भावार्थ - चोरी करने वाले पराये धन को उड़ाने में निपुण होते हैं। वे चौर्यकर्म के अभ्यासी तथा उचित अवसर के ज्ञाता होते हैं। वे साहसिक होते हैं। उनकी भावना अत्यन्त क्षुद्र होती है। वे अत्यन्त लोभी होते हैं। वे मीठे या अनुकूल वचन बोलकर और विश्वास जमा कर दूसरों को ठगने में बड़े कुशल होते हैं। उनकी रुचि एकमात्र धन में ही होती है। कोई सामने आने वालों को लूटता है, कोई ऋण लेकर (या ब्याज का लोभ देकर) दूसरों का धन दबा लेते हैं। कोई दूसरों के घरों में सेंध लगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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