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________________ बलदेव और वासुदेव के भोग उनके दोनों पाश्वों में चँवर डुलाये जाते थे। बड़े-बड़े पर्वतों और गुफाओं में रहने वाली नीरोग एवं स्वस्थ गायों के पूँछ के बालों से वे चँवर बनाये गये थे। वे चँवर विकसिक निर्मल श्वेत कमल, उज्ज्वल रजतगिरि के शिखर, निर्मल चन्द्रमा की किरणों और चाँदी के समान श्वेत थे । वे हिलाये (डुलाये) जाते हुए चँवर ऐसे लग रहे थे मानो पवन से प्रेरित होकर क्षीर समुद्र की चपलतापूर्वक चलती हुई जल-तरंगें हों। मानसरोवर तथा कनकगिरि पर रहने वाली और श्वेत पंखों के वेश वाली तथा उड़ कर पर्वत पर जाने और नीचे मानसरोवर पर आने में अत्यन्त शीघ्र गतिवाली हंस वधुओं के समान वे चँवर श्वेत थे और ऊपर-नीचे आ-जा रहे थे । उन चँवरों का दण्ड स्वर्ण-निर्मित था और विविध प्रकार की विचित्र महामूल्यवान् मणियों से जड़ित था । चँवर सुन्दर थे । वे नरेन्द्र की राज्य लक्ष्मी के प्रभाव को प्रकट कर रहे थे। उनके बनाने वाले बड़े नगरों के कुशल कलाकार थे। वे चँवर समृद्ध एवं उच्च नरेशों पर ही डुलाये जाते थे । कालागुरु श्रेष्ठ कुन्दरुक्क और तरुक्क आदि सुगन्धित धूपों से वे अत्यन्त सुवासित थे । उन देदीप्यमान चैवरों से बलदेव - वासुदेव युक्त थे। उनका शीतल पवन उन नरेन्द्रों के अंग को सुखदायक था। अजिया-अजियरहा-हलमूसलकणगपाणी- संखचक्कगयसत्तिणंदगधरा पवरुज्जलसुकयविमलकोथूभतिरीडधारी कुंडलउज्जोवियाणणा पुंडरीयणयणा एगावलीकं ठरइयवच्छा सिरिवच्छसुलंछणावरजसा सव्वोउय - सुरभिकुसुमसुरइयपलं बसोहं तवियसंतचित्तवणमालरइंयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविराइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई कडिसुत्तगणीलंपीयकोसिज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयणवत्थणियमहुरगंभीरणिद्धघोसा णरसीहा सीहविक्कमगई अत्थमियपवररायसीहा सोमा बारवइपुण्णचंदा पुव्वकयतवप्पभावा णिविट्ठसंचियसुहा अणेगवाससयमाउवंता भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अउल-सद्दफरिसरसरूवगंधे अणुहवित्ता ते वि उवणमंति मरणधम्मं अवितत्ता कामाणं । शब्दार्थ - अजिया - वे अजेय थे, अजियरहा उनके रथ अजेय थे, हलमूसलकणगपाणी - बलदेव हल मुसल और बाणों को हाथ में धारण करते थे, संखचक्कगयसत्तिणंदगधरा - श्रीकृष्ण शंख, चक्र, गदा, शक्ति और नन्दक नाम वाला खड्ग धारण करते थे, पवरुज्जलसुकयविमलकोथूभतिरीडधारी श्रीकृष्ण उज्ज्वल एवं देदीप्यमान कौस्तुभमणियुक्त मुकुट धारण करते थे, कुंडलउज्जोवियाणणाकुण्डलों से उनका मुख उद्योतयुक्त दिखाई देता था, पुंडरीयणयणा- उनके नेत्र श्वेत कमल के समान थे, एंगावलीकंठरइयवच्छा उनके कण्ठ में एकावली माला शोभित हो रही थी, सिरिवच्छसुलंछणाहृदय पर श्रीवत्स का सुलक्षण था, वरजसा- उनका यश निर्मल था, सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरइयपलंबसौहंतवियसंतचित्तवणमालरइयवच्छा सभी ऋतुओं के सुगन्धित पुष्पों से रची हुई सुखदायिनी - Jain Education International - - - १६७ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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