________________ 208 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ************************************** 18. धृति - धैर्य-दृढ़ता। 19. समृद्धि- सभी प्रकार की सम्पन्नता से युक्त। 20. ऋद्धि- लक्ष्मी प्राप्ति की हेतुभूत।। 21. वृद्धि - पुण्य-प्रकृति का सम्पादन कर सुख-सामग्री बढ़ाने वाली। 22. स्थिति - स्थायी निवास-शाश्वत-मुक्ति दायिका। 23. पुष्टि - पूर्व पाप रूप दुर्बलता को नष्ट कर पुण्य संचय रूप पुष्टि देने वाली शक्तिदायिनी। 24. नन्दा - स्व-पर को आनन्द देने वाली। 25. भद्रा- स्व-पर का कल्याण करने वाली। 26. विशुद्धि - पाप रूप मल को दूर कर आत्मा को निर्मल बनाने वाली। 27. लब्धि - अमर्षोषधादि लब्धियाँ देने वाली। 28. विशिष्ट-दृष्टि - अन्य दर्शनों की अनुपादेयता बतला कर सम्यग्दर्शन रूपी स्याद्वादमय प्रधान दृष्टि देने वाली। 29: कल्याण - आत्मा की स्वस्थता-आरोग्यता प्राप्त कराने वाली। 30. मंगल - अनिष्ट की निवृत्ति करने वाली-मंगलदायिनी। 31. प्रमोदा - हर्षोत्पादिका। 32. विभूति - सभी प्रकार का वैभव प्रदान करने वाली। 33. रक्षा - मारे जाते हुए जीवों की रक्षा करने के स्वभाव वाली। 34. सिद्धावास - मोक्ष का अक्षय निवास देने वाली। 35. अनास्त्रव - आस्रव द्वारों (कर्मबन्ध के द्वारों) को रोकने वाली। 36. केवली स्थान - केवली प्ररूपित धर्म का मुख्य स्थान अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति का : मुख्य आधार। 37. शिव - उपद्रव रहित ऐसी स्थायी शान्ति को देने वाली। 38. समिति - सम्यक् एवं निर्दोष प्रवृत्ति कराने वाली। . 39. शील - सदाचार रूप। 40. संयम - हिंसा से सर्वथा निवृत्ति रूप। 41. शील परिगृह - शुद्ध चारित्र रूपी सदाचार का घर।। 42. संवर - कर्मों के आगमन को रोकने वाली। 43. गुप्ति - मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकने वाली। 44. व्यवसाय - विशिष्ट शुभ अध्यवसाय-शुभ भाव सम्पन्नता। 45. उच्छय - शुभ भावों में वृद्धि (उन्नति) कराने वाली। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org