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________________ ************************************************* अहिंसा भगवती के साठ नाम 207 ************************** निर्मल, 59. पभासा - प्रभासा-दीप्ति रूप और ६०.णिम्मलयर - निर्मलतर, एवमाईणि - इस प्रकार, अहिंसाए - अहिंसा, भगवईए - भगवती के, णिययगुणणिम्मियाइं - गुण निष्पन्न, पज्जवणामाणिपर्यायवाची नाम, होति - हैं। विवेचन - इन पाँच संवरद्वारों में अहिंसा प्रथम संवर द्वार है। यह अहिंसा देव, मनुष्य और असुर युक्त समस्त लोक के लिए द्वीप के समान आधारभूत है अथवा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है। शरणागत को आश्रय देने वाली है और प्रतिष्ठा रूप है। समस्त गुणों की प्रतिष्ठा अहिंसा में होती है। अहिंसा स्वतः अन्य सभी गुणों के लिए आधारभूत है। इस अहिंसा के गुण-निष्पन्न नाम इस प्रकार हैं - 1. निर्वाण - मोक्ष की हेतु। 2. निवृत्ति - समस्त पाप, दुर्ध्यान एवं दुःखों से निवृत्त करके शान्ति एवं प्रसन्नता प्रदान करने वाली। 3. समाधि - चित्त को शान्त एवं एकाग्र रखने वाली। 4. शक्ति - परमपद प्राप्त करने की शक्ति देने वाली अथवा शान्ति-परम शान्ति देने वाली। 5. कीर्ति - ख्याति प्राप्त कराने वाली, प्रशंसाजनक। 6. कान्ति - दीप्ति, तेज, प्रताप एवं सौन्दर्य वर्धिका। 7. रति- आनन्ददायिका। 8. विरति - हिंसादि पाप से हटाने वाली। - 9. सुयंग - श्रुतांग-ज्ञान ही जिसका अंग है ऐसे श्रुतज्ञान से उत्पन्न। 10. तृप्ति - तुष्टि-दायिका-संतोषप्रद। 11. दया - दुःखी जीवों पर अनुकम्पा करने वाली। 12. विमुक्ति - कर्म-बन्धनों से मुक्त करने वाली। १३:क्षान्ति - क्षमा से क्रोध का निग्रह करने वाली। 14. सम्यक्त्वाराधना - सम्यक्त्व की आराधिका (अपने अनुकम्पा गुण से सम्यक्त्व की विशिष्ट रूप से आराधना करने वाली)। . 15. महंती या महती - सभी व्रतों में विशेष महत्त्व रखने वाली, यथा-"निद्दिढे एत्थ वयं इक्कं चिय जिणवरेहिं पाणाइवायवेरमण मवसेसा तस्स रक्खट्ठा" (सभी जिनेश्वरों ने इस एक प्राणातिपात विरमण-अहिंसा व्रत का ही उपदेश किया है, अन्य व्रत तो इसकी रक्षा के लिए है)। . 16. बोधि - सम्यग्-धर्म प्रदायिका-यथार्थ बोधोत्पादिका यथा "अणुकम्पअकामणिज्जरबालतवे दाणविणयविब्भंगे, संजोग-विप्पजोगे वसणूसवइड्डिसक्कारे" - अनुकम्पा, अकाम निर्जरा, बालतप, दान, विनय, विभंग ज्ञान, सुसंयोग, दुःखानुभव, उत्सव दर्शन, ऋद्धि एवं सत्कार की आकांक्षा, इनसे बोधि की प्राप्ति होती है (आवश्यक नियुक्ति, गा० 845) / 17. बुद्धि - विमल मति रूप। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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