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________________ ५९ उपसंहार **** ******************************************** को, पावकारी - पाप करने वाले, एसो - यह, सो - वह, पाणवहस्स - प्राणीवध का, फलविवागो - फलभोग, इहलोइओ - इस लोक, परलोइओ - परलोक में, अप्पसुहो- सुख रहित अथवा अल्पसुख, बहुदुक्खो - बहुत दुःखों वाला, महब्भयो - महाभयकारी, बहुरयप्पगाढो - बहुत से दोषों से भरा हुआ, दारुणो- दारुण-रौद्र, कक्कसो - कर्कश-कठोर, असाओ - सुख रहित, वाससहस्सेहिं - हजारों . वर्षों में, मुंबई - छूटने वाला, ण - नहीं, अवेदयित्ता - फल भोगे बिना, अत्थि - अस्तित्व, मोक्खो - मोक्ष, ति - इति, एवमाहंसु - इस प्रकार, णायकुलणंदणो - ज्ञातकुल नन्दन-ज्ञातकुल को आनन्द देने वाले, महप्पा - महात्मा, जिणो उ- जिन, वीरवरणामधेजो - वीरवर-महावीर नाम वाले, कहेसीकहा है, पाणवहस्स - प्राणवध, फलविवागं - फलविपाक, एसो - यह, सो - वह, पाणवहो - प्राणवध, चंडो- प्रचण्ड, रुद्दो - रौद्र, खुद्दो- क्षुद्र, अणारिओ - अनार्य, णिग्घिणो - निघृण, णिसंसोनृशंस-क्रूर, महमओ - महाभयानक, बीहणओ - डरावना, तासणओ - त्रासोत्पादक, अणजाओ - अन्याययुक्त, उव्वेयणओ - उद्वेग उत्पन्न करने वाला, णिरवयक्खो- निरपेक्ष-जीवों के प्राणों के प्रति उपेक्षित, णिद्धम्मो - धर्म रहित, णिप्पिवासो - स्नेह रहित, णिक्कलुणो - करुणा रहित, णिरयवासगमणणिधणो- नरक में गमन करने की सामग्री का भंडार, मोहमहब्भय - मोहरूपी महाभय का, पवडओ - बढ़ाने वाला, मरणवेमणसो - मृत्यु रूप दीनता देने वाला, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ, पढम - प्रथम, अहम्मदारं - अधर्मद्वार, सम्मतं - समाप्त। . भावार्थ - इस प्रकार जीवों की हिंसा करने वाले पापी जीव, नरक-तिर्यंच और कुत्सित मनुष्य .. भव में भ्रमण करते हुए अनंत दुःखों को प्राप्त होते हैं। उस प्राणवध का यह फल-विपाक है, जो इस लोक और परलोक में प्राप्त होता है। प्राणवध करने वाले पापी जीवों को पापकर्म से सुख तो कुछ भी नहीं मिलता अथवा पाप करते समय बहुत ही अल्प (वह भी कुत्सित) सुख मिलता है, किन्तु दुःख तो बहुत अधिक भोगना पड़ता है। यह प्राणवध महाभय का दाता है। दोष-समूहों से भरपूर है। हिंसा का पाप बड़ा ही दारुण; कठोर एवं दुःखमय है। यह पाप हजारों वर्षों तक भोगने पर छूटता है। बिना भोगे छुटकारा नहीं हो सकता। ज्ञातृकुल नन्दन महान् आत्मा महावीर जिनेश्वर ने प्राणवध का फल इस प्रकार कहा है। यह प्राणवध, प्रचंड, रौद्र, क्षुद्र, अनार्य, निपुण, नृशंसता से परिपूर्ण, महाभय का कारण, बीभत्स, त्रास उत्पन्न करने वाला है, अन्याय युक्त है, उद्वेग उत्पन्न करने वाला है। प्राणियों के प्राणों की उपेक्षा करने वाला, अधर्म, स्नेह-रहित एवं करुणा से शून्य है। महामोह एवं भय को बढ़ाने वाला है। यह मृत्यु-भय रूपं दीनता उत्पन्न करने वाला है। प्राणवध का पाप, नरकावास की ओर ले जाने वाला अशुभ कर्मों के । भंडार रूप है। ऐसा मैं कहता हूँ। . विवेचन - अठारह पापों में से सबसे पहला पाप-प्राणातिपात-हिंसा नामक प्रथम आस्रव द्वार का उपसंहार करते हुए आगमकार महर्षि बतलाते हैं कि हिंसाजन्य घोर पाप का करने वाला, नरक-तिर्यंच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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