________________ 295 हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेतीस बोल **************************************************** ********** वचन-समाधारण 22. काय समाधारण 23. ज्ञान 24. दर्शन 25. चारित्र 26. वेदना सहन और 27. मृत्यु सहन। आचार-प्रकल्प अठाईस - इसके स्वरूप में मत भेद हैं। एक मत से ये भेद इस प्रकार हैं - 1. एक मास का प्रायश्चित्त 2. एक मास पांच दिन का प्रायश्चित्त 3. एक मास दस दिन 4. एक मास पन्द्रह दिन 5. एक मास बीस दिन 6. एक मास पच्चीस दिन। इस प्रकार पांच-पांच दिन बढाते हुए पांच मास तक के प्रायश्चित्त के 25 भेद हुए। ये 25 उपघातिक हैं। २६वाँ अनुपघातिक आरोपण 27. कृत्स्न-सम्पूर्ण और 28. अकृत्सन-अपूर्ण। दूसरा मत है - आचारांग के 25 अध्ययन और निशीथ के तीन-उपघातिक, अनुपघातिक और आरोपण। 'आचार-प्रकल्प'-इसका अन्य कोई स्वरूप जानने में नहीं आया। पापश्रुत उनतीस - 1. भूमि के गुण-दोष अथवा भूकम्प आदि का फल बताने वाला शास्त्र 2. . उत्पातों का फल बताने वाले शास्त्र 3. स्वप्न-फल दर्शक 4. अन्तरिक्ष के चिह्नों का फल 5. अंगस्फूरण 6. स्वर 7. व्यंजन, तिल, मष आदि का फल 8. लक्षण शास्त्र। इन आठ प्रकार के पाप शास्त्रों के 1 सूत्र 2 वृत्ति और 3 वार्तिक इन तीन प्रकार से 24. भेद हुए। 25. विकथानुयोग 26. विद्यानुयोग 27. मंत्रानुयोग 28. योगानुयोग और 29. अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग, विशेष विवरण समवायांग 29 की 'टीका में है। महामोहनीय स्थान तीस - 1. त्रस प्राणियों को क्रूरतापूर्वक पानी में डूबा कर मारना। . 2. श्वास रोंध कर मारना। 3. मनुष्यों या अन्य जीवों को घर में बंध कर धूएँ (या गैस) से घुटा कर मारना। 4. मस्तक पर घातक प्रहार करके मारना। 5. मस्तक पर गीला चमड़ा बांध कर मारना। 6. मनोरंजन के लिए किसी पागल को बार-बार मारना और उसकी दुर्दशा पर हँसना। 7. मायापूर्वक अपना दुराचरण ढक कर सद्गुणी बनने का दिखावा करना। 8. निर्दोष पर झूठा कलंक लगाना या अपना पाप दूसरों पर थोप कर निर्दोष बनना। 9: सत्य जानकर भी सभा में सच-झूठ मिलाकर-मिश्रित वचन बोलना। 10. राज्य का मंत्री हो और राजा का विश्वास प्राप्त कर उसकी राज्य-लक्ष्मी हस्तगत करे और रानी का भोग करे तथा राजा को राज्य-भ्रष्ट करके निन्दित करे। 11. ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने को बाल ब्रह्मचारी जाहिर करे। 12. भोग-गृद्ध होते हुए भी ब्रह्मचारी बनने का ढोंग रच कर सम्मान प्राप्त करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org