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________________ 296 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ 13. उपकारी के धन पर लुब्ध होकर हरण करे। 14. किसी स्वामी ने अथवा गांव की जनता ने एक सामान्य व्यक्ति को अपना अधिकारी या प्रतिनिधि बनाया अथवा रक्षक नियत किया और उनकी सहायता से वह विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो गया। फिर वह अपने स्वामी या उस जनता का विश्वासघात करे। 15. अपने पालक, स्वामी, राजा, मंत्री, कलाचार्य और धर्माचार्य का घातक। 16. राष्ट्रनायक, ग्रामाधिपति, यशस्वी, परोपकारी सेठ को मारने वाला। 17. बहुजन समाज के नेता एवं लोगों के आश्रयदाता को मारने वाला। 18. संसार त्याग कर प्रवजित होने वाले या प्रव्रजित साधु तपस्वी को पतित करने वाला। 19. अनन्तज्ञानियों की निन्दा करने से। 20. सत्यमार्ग का लोपक, न्यायमार्ग का उत्थापक, अन्य को पथभ्रष्ट करने से। 21. उपकारी आचार्य-उपाध्याय की निन्दा करने से। 22. अभिमानी होकर आचार्यादि की सेवा नहीं करने से। 23. अल्पज्ञ होते हुए भी अपने को बहुश्रुत एवं रहस्यज्ञ जाहिर करने से। 24. तपस्वी नहीं होते हुए भी तपस्वी कहला कर सम्मान प्राप्त करने से। * 25. शक्ति होने पर भी रोगी की सेवा नहीं करने से। 26. हिंसाकारी एवं तीर्थभेदक प्रचार करने से। ' 27. मान-पूजा प्रतिष्ठा के लिए वशीकरणादि प्रयोग करने से। 28. देव एवं मनुष्य सम्बन्धी भोगों की तीव्र अभिलाषा रखने से। 29. देवों की ऋद्धि आदि की निंदा या निषेध करने से। 30. यश-लोलुप होकर भगवान् के समान पूजित होने के लिए देवदर्शन होने, अपने पास देव आने और उनके रहस्य जानने की झूठी डिगें हाँकने से। __(दशाश्रुतस्कन्ध 9) सिद्धों के इकत्तीस गुण - आठ कर्मों की 31 प्रकृतियों के क्षय होने से उत्पन्न इकत्तीस आत्मगुण। 5 ज्ञानावरणीय, 9 दर्शनावरणीय, 2 वेदनीय, 2 मोहनीय (दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय) 4 आयुष्य, 2 नाम (शुभ और अशुभ) 2 गोत्र और 5 अन्तराय। इनके नष्ट होने से प्रकट होने वाले ज्ञानादि 31 गुण। योग-संग्रह बत्तीस-१. आलोचना 2. निरपलाप 3. दृढ़धर्मिता 4. निराश्रित तप 5. शिक्षा 6. निष्प्रतिकर्म 7. अज्ञात तप 8. निर्लोभता 9. तितिक्षा 10. आर्जव 11. शुचि 12. सम्यग्दृष्टि 13. समाधि 14. आचार 15. विनयोपगत 16. धैर्यवान् 17. संवेग 18. प्रणिधि 19. सुविहित 20. संवर 21. दोष-निरोध 22. सर्वकाम विरक्तता 23. मूल-गुण प्रत्याख्यान 24. उत्तरगुण प्रत्याख्यान 25. सा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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