SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • पापियों के पाप का फल १४५ सम्यक्त्व से भ्रष्ट, दरिहोवहवाभिभूया - दारिद्र्य के उपद्रव से अभिभूत हैं, णिच्चं - सदैव, परकम्मकारिणो - दूसरों का काम करने वाले-पराधीन होते हैं, जीवणत्थरहिया - जीवन को सुखमय बनाने वाले अर्थ-धन से रहित होते हैं, किविणा - कृपण-रांक, परपिंडतक्कगा - दूसरों की रोटी की ताक में रहने वाले, दुक्खलद्धाहारा - जिन्हें भोजन भी दुःखपूर्वक मिलता है, अरस - रस रहित, विरसबुरे रस वाला, तुच्छ - हल्का या थोड़ा, कय - करते, कुच्छिपूरा - पेट भरते हैं, परस्स - दूसरों का, पेच्छंता - देखकर, रिद्धि-सक्कारभोयणविसेससमुदयविहिं - ऋद्धि, सत्कार, भोजन आदि विशेष पदार्थों की, जिंदंता - निन्दा करते हैं, अप्पगं - अपनी, कयंतं - भाग्य की, परिवयंता - बुराई करते हैं, इहे य - इस भव की और, पुरेकडाई कम्माइं पावगाइं - पूर्व के किये हुए पाप कर्म से, विमणसो- उदास होते हुए, सोएणडज्झमाणा - शोक रूपी अग्नि से जलते हुए, परिभूया - तिरस्कृत, होति - होते हैं, सत्तपरिवजिया - शक्ति से वंचित, छोभा - असहाय, सिप्पकला - शिल्पकला, समयसत्य-परिवजिया -"धर्मशास्त्र के ज्ञान से विवर्जित, जहाजायपसूभूया - यथाजात पशुभूत-शिक्षा आदि से वंचित बैल, गधे या भैंसे जैसे, अवियत्ता - अविश्वसनीय या अप्रीति कारक, णिच्च - नित्य, णीयकम्मोवजीविणो - नीच-कर्म करके जीवन चलाने वाले, लोयकुच्छणिज्जा - लोक-निन्दित होते हैं, मोघमणोरहा-विफल मनोरथ रहते, णिरासबहला-जो प्रायः निराश ही रहते हैं। ... भावार्थ - चौर्य करने वाले पापी जीव जिस कुल का आयु बांधते हैं और जन्म लेते हैं, वह बन्धुगण, स्वजन-परिजन और मित्रादि से रहित होता है। वे अनिच्छनीय एवं अप्रिय होते हैं। उनका वचन अस्वीकार होता है। वे अविनीत होते हैं। उनके रहने का स्थान बुरा, आसन शय्यादि भी बुरे और भोजन भी बुरा प्राप्त होता है। वे घृणित होते हैं। उनके शरीर का संहवन (गठन) भी बुरा और आकार तथा रूप भी खराब होता है। वे अत्यन्त क्रोधी, अभिमानी, कपटी और लोभी होते हैं। उनमें मोह भी बहुत होता है। वे धार्मिक विचार एवं सम्यक्त्व से भ्रष्ट तथा वंचित रहते हैं। उनका दारिद्र्य स्थायी रहता है। वे सदैव धनाभाव से पीड़ित रहते हैं और दूसरों.का कार्य करके जीवन चलाते हैं। वे जीवन में सुख प्राप्त करने के साधन ऐसे अर्थ (धन) से खाली रहते हैं। वे रॉक होते हैं। वे पेट भरने के लिए भी दूसरों का भोजन ताकते रहते हैं। उन्हें भोजन भी बड़े दुःख से प्राप्त होता है और वह भी रस-रहित, बुरे स्वाद वाला, निकृष्ट तथा थोड़ा मिलता है, जिससे उनकी उदरपूर्ति भी कठिनाई से होती है। वे दूसरों को प्राप्त ऋद्धि, सत्कार, भोजन तथा सुख-सामग्री देख कर तरसते हैं और अपनी तथा अपने भाग्य की निन्दा करते हैं। वे इस लोक में तथा परलोक में किये गये अपने पाप कर्म की निन्दा करते हैं। वे उदास एवं दीनता युक्त तथा शोकाग्नि में जलते ही रहते हैं। उनमें शक्ति भी नहीं होती और किसी की सहायता भी प्राप्त नहीं होती। वे सदैव तिरस्कृत रहते हैं। उनमें शिल्पकला या धर्मशास्त्रों का ज्ञान नहीं होता। वे पशु के समान विद्या, बुद्धि, ज्ञान, विचार एवं सभ्यता से वंचित रहते हैं। वे अविश्वसनीय तथा अप्रीति कारक होते हैं। वे सदैव नीच-कृत्य करके अपना पेट भरने वाले होते हैं। वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy