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________________ १४६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ ************************************************************ लोक में निन्दित होते रहते हैं। आशा एवं तृष्णा रूपी बन्धन में वे सदैव बंधे रहते हैं, किन्तु उनके मनोरथ कभी पूरे नहीं होते, उनकी इच्छा पूरी नहीं होती। वे प्रायः निराश रहते हैं। आसापास-पडिबद्धपाणा अत्थोपायाण-काम-सोक्खे य लोयसारे होति। अफलवंतगा य सुटु वि य उज्जमंता तहिवसुज्जुत्त-कम्मकय-दुक्खसंठवियसत्थपिंडसंचियपरा पक्खिण्णदव्वसारा णिच्चं अधुव-धण-धण्णकोस-परिभोगविवजिया रहिय-कामभोग-परिभोग-सव्वसोक्खा परसिरिभोगोवभोग-णिस्साणमग्गणपरायणा वरागा अकामियाए विणेति। दुक्खं णेव सुहं णेव णिव्वई उवलभंति अच्चंत-विउलदुक्खसय-संपलित्ता परस्स दव्वेहिं जे अविरया। एसो सो अदिण्णादाणस्स फलविवागो, इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, ण य अवेयइत्ता अत्थि उ मोक्खोत्ति। शब्दार्थ - आसापासपडिबद्धपाणा - उनके प्राण आशारूपी पाश में बंधे रहते हैं, अत्योपायाणकामसोक्खे - अर्थोपार्जन और काम-सुख, लोयसारे होति - लोक का सार होता है, अफलवंतगा - फल प्राप्त से रहित, सु१ वि य उज्जमंता - खूब परिश्रमशील रहते हुए, तहिवसुजुत्त - प्रतिदिन उद्यम करने पर भी, कम्मकयदुक्खसंठविय - किये हुए काम से कठिनाई से प्राप्त, सिथपिंडसंचयपरा - धान्य या भोजन का संचय करने में लगे रहते हैं, पक्खिण्णदवसारा - साररूप द्रव्य-धन से प्रक्षिण-दरिद्र, णिच्चं - सदैव, अधुवधणधण्णकोस - धन धान्य और भण्डार जिनका अस्थिर है, परिभोग-विवजिया - परिभोग से वंचित, रहियकामभोगपरिभोगसव्यसोक्खा - कामभोग एवं सभी प्रकार के सुख से रहित हैं, परसिरिभोगोवभोगणिस्साणमग्गणपरायणा - दूसरों की लक्ष्मी, भोगोपभोग और आश्रय की इच्छा और कामना में ही जो तरसते रहते हैं, वरागा - दीन, अकामियाए - इच्छापूर्ति से रहित, विणेंति - व्यतीत करते हैं, दुक्खं - दुःख पूर्ण, णेवसुहं - सुख नहीं, णेव णिव्वुई उवलभंति - निवृत्ति-स्वस्थता-शांति प्राप्त नहीं होती, अच्चंत - अत्यन्त, विउलदुक्खसयसंपलित्ता - सदैव सैकड़ों दुःखों से संतप्त रहते, परस्सदव्वेहिं - दूसरों के द्रव्य से, जे अविरया - जो अविरत हैं, एसो सो - इस प्रकार, अदिण्णादाणस्स - अदत्तादान-चोरी का, फलविवागो - फल-विपाक है, इहलोइओ - इहलौकिक, परलोइओ - पारलौकिक, अप्पसुहो - सुख से रहित, बहुदुहो - बहुत दुःख वाला, महब्भओ - महा भयानक, बहुरयप्पगाढो - बहुत-सी पाप-कर्म की धूल से भरपूर, दारुणो - दारुण, कक्कसो - कर्कश-कठोर, असाओ - असाता युक्त, वाससहस्सेहिं - हजारों वर्षों के बाद, मुच्यइ - छुटकारा होता है, णय अवेयइत्ता - फल भुगते बिना, अस्थि - है, मोक्खोत्ति - मुक्ति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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