________________ 264 ****** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०३ ************************************************** शय्या, कारियव्वा - करवाना, जस्सेव - जिसके, उवस्सए - उपाश्रय, वसेज - ठहरे, सिजं - शय्या, तत्थेव - वहीं, गवेसिज्जा - गवेषणा करे, विसमं समंण करेज्जा - विषम को सम नहीं करे, ण णिवायपवाय उस्सुगत्तं - वायु सहित या रहित स्थान में उत्सुकता न करे, ण डंसमसगेसु खुभियव्वंडाँस और मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होंवे, अग्गी धूमो ण कायव्वो - अग्नि अथवा धुंआ नहीं करे एवं इस प्रकार, संजमबहुले - संयम की प्रधानता वाला, संवरबहुले - संवर की प्रधानता वाला, संवुडबहुले - संवृत्तपन की प्रचुरता वाला, समाहिबहुले - समाधि- सम्पन्न, धीरे - धैर्यशाली, काएण फासयंतो - शरीर से पालन करता हुआ, सययं - निरन्तर, अज्झप्पज्झाणजुत्ते - अध्यात्म-ध्यान से युक्त, समिए - समिति वाला, एगे - अकेला, चरिज - आचरण करे, धम्मं - धर्म का, सेज्जासमिइजोगेण - शय्या-समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होती, अंतरप्या - अन्तरात्मा, णिच्चं - सदा, अहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए - दुर्गतिजनक कार्यों के करने-कराने रूप पाप-कर्म से विरत, दत्तमणुण्णायउग्गहरुई - दत्त और आज्ञा प्राप्त अवग्रह की रुचि वाला। भावार्थ - तीसरी "शय्या-परिकर्म वर्जन" भावना है। साधु, पीढ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वक्षों का छेदन नहीं करे और वक्षों का छेदन-भेदन कराकर शय्या नहीं बनवावें. किन्त जिस गहस्थ के उपाश्रय (घर) में साध ठहरे वहीं शय्या की गवेषणा करे। यदि वहाँ ठहरने की भमि विषम (ऊबड़-खाबड़) हो, तो उसे सम (बराबर) नहीं करे। यदि वहाँ वायु का संचार न हो या अधिक हो, तो उत्सुकता (अरुचि) नहीं रखकर समभाव पूर्वक रहे। यदि डांस-मच्छरों का परीषह उत्पन्न हो जाए, तो क्षुभित नहीं होकर शान्त रहे। उन डांस-मच्छरों का निवारण करने के लिए न तो अग्नि प्रज्वलित करे और न धुआं ही करे। इस प्रकार निर्दोष चर्या से उस साधु के जीवन में अत्यधिक संयम, विस्तृत संवर, कषायों और इन्द्रियों पर विशेष, विजय, चित्त में प्रसन्नता एवं शांति की बहुलता होती है। वीतराग-भाव की वृद्धि करने वाला धीर-वीर श्रमण, उत्पन्न परीषहों को अपने शरीर पर झेलता हुआ अध्यात्म ध्यान से सतत सम्पन्न रहे और समितियों का पालन करता हुआ, स्वयं अकेला (रागादि रहित) होकर धर्म का आचरण करे। इस प्रकार सदैव शय्या समिति के योग से (शय्या परिकर्म वर्जित करने से) अन्तरात्मा विशुद्ध होती है और दुर्गतिदायक कृत्यों के करण-करावन रूप पापकर्मों से वंचित रहती है। वह प्रशस्तात्मा दत्तमनुज्ञात अवग्रह ग्रहण करने की रुचि वाला होता है।' - चतुर्थ भावना-अनुज्ञात भक्तादि . चउत्थं साहारण-पिंडपायलाभे सति भोत्तव्वं संजएणं समियं ण सायसूपाहियं ण खद्धं ण वेगियं ण तुरियं ण चवलं ण साहसं ण य परस्स पीलाकारसावजं तह भोत्तव्वं जह से तइयवयं ण सीयइ साहारणपिंड-पायलाभे सुहुमं अदिण्णादाणवयणियम-विरमणं एवं साहारणपिंडपायलाभे समिइजोगेण भाविओ भवड़ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए दत्तमष्णुण्णाय उग्गहरुई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org