SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ *************************************************** ******* *** जाज्वल्यमान अंगारों से युक्त स्थान होने के कारण अत्यन्त उष्ण वेदना होती है, कहीं हिम (बर्फ) से भी अत्यन्त शीत वेदना होती है और अन्य प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। नरक भूमि घोर, भयावनी एवं अप्रिय है। नरक की आयु पूरी करके वे पापी जीव, वहाँ से मर कर तिर्यंच योनि में जाते हैं। तिर्यंच योनि में भी वे नरक के समान दुःख भोगते हैं। इस प्रकार नरकों के अनेक और तिर्यंचों के लाखों भव, अनन्तकाल तक करके, कभी किसी प्रकार मनुष्य-भव प्राप्त कर लेते हैं, तो वहाँ भी वे अनार्य (शक, यवन, बर्बर आदि म्लेच्छ) एवं नीच कुल में उत्पन्न होते हैं। कभी वे आर्यदेश में उत्पन्न हो भी जाएं, तो वैसे कुल में उत्पन्न होते हैं-जो लोक-बाह्य (अछूत) एवं घृणित हों। वे अकुशल-अज्ञानी तथा पशु के समान होते हैं। वे काम-भोग के प्यासे रहते हैं। वहाँ वे फिर पापाचरण करके, वैसे ही अशुभ कर्मबन्ध करते हैं, जो नरक में ले जाने वाले हैं और संसार परिभ्रमण का मूल कारण है। उन्हें न धर्म सुनना मिलता है, न धर्म में उनकी श्रद्धा ही होती है। वे अनार्य एवं क्रूर होते हैं। मिथ्यादर्शनों में उनकी रुचि होती है। वे मिथ्याश्रुत सुनते और उसी के अनुयायी होते हैं। उनकी रुचि भी हिंसादि पाप कार्यों में होती है, जिससे आत्मा एकान्त रूप से दण्डित होती हो। उनकी आत्मा पर पापकर्मों का बन्ध, कोशिकार के समान होता है। वे आठ कर्म के दृढ़ बन्धनों से अपनी आत्मा को बांध लेते हैं और अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। विवेचन - मनुष्य भव के कुछ ही वर्षों में किये हुए पापाचरण का कटु परिणाम कितना अधिक और भयंकर होता है, इसका दिग्दर्शन इस सूत्र में किया गया है। अन्तर्मुहूर्त के निकृष्टतम परिणामों का दुःख, सागरोपमों तक भोगना पड़ता है। बड़ के एक बारीक बीज का वृक्ष कितना विशाल हो जाता है, उसके कितने-असंख्यात बीज उत्पन्न हो जाते हैं और उसकी परम्परा इतनी बढ़ती रहती है कि जिसका कोई अन्त भी नहीं आता। उसी प्रकार एक मनुष्य-जन्म में किये हुए पाप से आत्मा इतनी अधम बन जाती है कि उस पाप का कालारंग, परम्परा से बढ़ता ही जाता है। ऐसा पापी व्यक्ति, अकाम-निर्जरा से कभी मनुष्य भी हो जाये, तो भी उसकी चिरकाल से बनी हुई पाप-परिणति (पापी स्वभाव) उससे पुनः पापाचरण करवा कर अधोगति में ले जाती है। णिरयोवमं अणुहवंति - तिर्यंच योनि में भी नरक के समान दु:खों का अनुभव करते हैं। कई पशु, कसाईखाने में काटे जाते हैं, कई की पीट-पीट कर हड्डी-पसली तोड़ देते हैं, अत्यधिक भार भर कर खिंचवाते हैं, जिससे आँखें निकल जाती हैं, श्वास उखड़ जाता है। कई भूख-प्यास और शीतउष्णादि को सहन करते-करते मर जाते हैं। इस प्रकार सैकड़ों तरह से नरक के समान भयंकर दुःख भोगा जाता है। ___णीयकुलसमुप्पण्णा - पापी जीव मनुष्य भव प्राप्त करता है, तो भी नीच-कुल का, जहाँ पाप ही पाप किया जाता हो। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि-जैन धर्म को उच्च-कुल और नीच-कुल का भेद स्वीकार है। इतना होते हुए भी धर्माचरण करने वाले नीच कुलोत्पन्न आत्मा के भी धर्माचरण के कारण उच्च-गोत्र का उदय स्वीकार किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy