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पाप और दुर्गति की परम्परा
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** **** * ******************************* वि उवट्टिया समाणा पुणो वि पवजंति तिरियजोणिं तहिं पि णिरयोवमं अणुहवंति वेयणं, ते अणंतकालेण जइ णाम कहिं वि मणुयभावं लभंति णेगेहिं णिरयगइगमण तिरिय-भव-सयसहस्स-परियट्टेहि। . तत्थ वि य भवंतऽणारिया णीय-कुल-समुप्पण्णा आरियजणे विं लोगबजझा तिरिक्खभूया य अकुसला कामभोगतिसिया जहिं णिबंधंति णिरयवत्तणिभवप्पवंचकरण-पणोल्लि पुणो वि संसारावत्तणेममूले धम्म-सुइविवजिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसूइपवण्णा य होंति एगंत-दंड-रुइणो वेढेता कोसिकारकीडोव्व अप्पगं अट्ठकम्मतंतु घणबंधणेणं।
शब्दार्थ - मयासंता - मरने पर, पुणो - फिर, परलोगसमावण्णा - परलोक प्राप्त कर, णरए - नरक में, गच्छंति - जाते हैं, भिरभिरामे - असुहावने-सुन्दरता रहित-अप्रिय-अरुचिकर, अंगारपलित्तककप्प- अत्यन्त प्रज्वलित अंगारों से युक्त, अच्चत्य - अत्यन्त, सीय वेयण - शीत वेदना, अस्साउदिण्ण - दुःख उत्पन्न होने पर, सयय - सतत-निरन्तर, दुक्ख-सय - सैकड़ों दुःख, समभिदुएउत्पन्न होने से, तओ वि - वहाँ से, उवट्टियासमाणा - निकल कर, पुणोवि - फिर वे, पवजति - जाते हैं, तिरियजोणिं- तिर्यंच योनि में, तहिं पि - वहाँ भी, णिरयोवमं - नरक के समान, अणुहर्वति
अनुभव करते-भोगते हैं, वेयणं - वेदना, अणंतकालेण- अनंतकाल से, जइणाम - यदि नाम-कदाचित्, • कहिं वि - किसी प्रकार, मणुयभावं - मनुष्य भव, लभंति - प्राप्त करते हैं, णेगेहिं - अनेक, णिरयगइगमण - नरक गति में गमन, तिरियभव-सयसहस्स - तिर्यंच के लाखों भव, परियट्टेहिं - परिवर्तन-भ्रमण।
तत्य वि य - वहाँ भी, भवंत - होते हैं, अणारिया - अनार्य, णीयकुलसमुप्पण्णा - नीच कुलोत्पन्न, आरियजणेवि - आर्य देश में उत्पन्न हों तो भी, लोगबज्झा - लोकबाह्य-अछूत, तिरिक्खभूया - पशु के समान, अकुसला - बुद्धिहीन-तत्त्वज्ञान से रहित, काम-भोगतिसिया - कामभोग के प्यासे, जहिं - वहाँ, णिबंधंति - बांधते हैं, णिरयवत्तणि - नरक में ले जाने वाले, भवप्पवंचकरणपल्लोणि - भव प्रपंच को बढ़ाने वाले, पुणो वि - फिर भी, संसारावत्तणेममूले - संसार में परिभ्रमण कराने के मूल कारण, धम्मसूइविवज्जिया - धर्म श्रवण से वर्जित, अणज्जा - अनार्य, कूरा- क्रूर, मिच्छत्तसूइ- पवण्णा - मिथ्यात्व श्रुति का प्रतिपादन करने वाले, होति - होते हैं, एगंत दंड रुइणो - एकान्त दण्ड देने या पापाचरण से दण्डित होने योग्य रुचि वाले, वेढ्ता - बांधते हैं, कोसिकारकीडोव्य - कोशिकार के समान, अप्पगं - अपने को, अट्ठकम्मतंतु - आठ कर्म रूपी तन्तुओं से, घणबंधणेणं - दृढ़ बन्धनों से।
भावार्थ - वे चोर वहां से मर कर परलोक जाते हैं, तब वे उन नरकों में जाते हैं, जहाँ
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