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________________ 262 'प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०३ **************************************************************** भावार्थ - दूसरों के द्रव्य के हरण रूप पाप कर्म से निवृत्त करने वाले इस तीसरे महाव्रत की रक्षा करने के लिए पांच भावनाएं होती हैं। प्रथम भावना - साधुओं को ठहरने के लिए निर्दोष स्थान (उपाश्रय) का निर्देश करने वाली यह पहली भावना है। वे स्थान ये हैं - देवकुल-व्यंतरादि के मंदिर, सभा (जहाँ लोग एकत्रित होकर मंत्रणा करते है) प्याऊ, आवसथ (सन्यासियों का मठ) वृक्ष के नीचे, आराम (बगीचा), कन्दरा (गुफा) आकर (खान) पर्वत की गुफा, कर्म (लोहार आदि की शाला, जहाँ लोह पर क्रिया की जाती है, कुंभकार आदि के स्थान) उद्यान (उपवन) यानशाला (रथ, गाड़ी आदि वाहन रखने के स्थान) कुप्यशाला (घर के बरतन आदि रखने का स्थान) मण्डप (उत्सव का स्थान या विश्राम-स्थल) शून्य घर, श्मशान, लयन (पर्वत की तलहटी में बना हुआ) आपण (दुकान) और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में, जो सचित्त जल, मिट्टी, बीज, हरी वनस्पति और बेइन्द्रियादि त्रस प्राणियों से रहित हों, गृहस्थ ने अपने लिए बनाये हो, प्रासुक (निरवद्य) हो, विविक्त (स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित) हो और प्रशस्त (निर्दोष एवं शुभ) हों, ऐसे उपाश्रय में साधु को ठहरना चाहिए। ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए जो आधाकर्म बहुल (साधु के लिए आरम्भ करके बनाया) हो, साधु के रहने के लिए जल छिटक कर धूल दबाई हो, झाडू लगाकर साफ किया हो, विशेष रूप से. जल छिटका हो. सशोभित किया हो. ऊपर छाया हो. चना आदि पोता हो. लीपा हो. विशेष रूप से लीपा हो, शीत निवारण के लिए अग्नि जलाई हो या दीपक जलाया हो, बरतन आदि हटाकर अन्यत्र रखे हों, जहाँ भीतर या बाहर रहने से असंयम की वृद्धि होती हो, तो ऐसे स्थान साधु के लिए वर्जित हैं। ऐसे स्थानों का त्याग करना चाहिए। ऐसे उपाश्रय साधु के लिए सूत्र के प्रतिकूल हैं। इस प्रकार विविक्त-वसित रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है और . दुर्गति के कारण ऐसे पापकर्म करने, कराने से निवृत्ति होती है तथा दत्तानुज्ञात स्थान की रुचि होती है। विवेचन - साधु 'अनगार' होता है। साधु का अपना कोई घर नहीं होता, फिर भी उसे किसी स्थान पर ठहरना ही पड़ता है। प्रथम भावना में वैसे निर्दोष स्थानों का उल्लेख किया है जो पूर्णतया निर्दोष हो कर संयम के अनुकूल हों। द्वितीय भावना-निर्दोष संस्तारक - बिइयं आराम उजाणकाणणवणप्पदेसभागे किंचिइक्कडं व कठिणगंचजंतुगं च परा-मेर-कुच्च-कुसुडब्भ-पलाल-मूयगवक्कय पुष्फ-फल-तय-प्पवाल-कंदमूल-तण-कट्ठ-सक्कराइ गिण्हइ सेजोवहिस्स अट्ठा ण कप्पएं उग्गहे अदिण्णम्मि गिहिउँ जे हणि हणि उग्गहं. अणुण्णवियं गिहियव्वं एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविओ भवइअंतरप्याणिच्चंअहिगरण-करणकारावण-पावकम्मविरएदत्तमणुण्णायउग्गहरुई। .अन्य प्रतियों में 'वक्कय' के स्थान पर 'पव्वय' तथा 'वलय' पाठ हैं। , Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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