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________________ ४३ नारकों के शस्त्र ************************************* शस्त्रों के नाम बतलाते हैं - मुद्गर, मुसुंढी, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त, तोमर, शूल, लाठी, भिडीपाल, भाला, चमड़ा, लिपटा हुआ पत्थर, दुहण (मुद्गर) मुष्टिक, तलवार, पटिया, खड्ग, धनुष, बाण, कैंची, वसूला, कुठार और छेनी तथा इस प्रकार के अन्य भी सैकड़ों प्रकार के अत्यन्त तेज और स्वच्छ ऐसे बुरे शस्त्रों का वैक्रिय द्वारा निर्माण करके, तीव्र वैरानुबन्ध से बंधे हुए वे नारक जीव, एक दूसरे को मारते-काटते हुए असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं। विवेचन - मनुष्य और तिर्यंच योनि में पारस्परिक द्वेष, क्रोध, वैर और मारधाड़ से विषैली बनी हुई आत्मा नरक में जाकर भी वही काम करती है। उसी कलुषित-अत्यन्त कलुषित भावनाओं में जलती-सुलगती एवं भभकती हुई अन्य जीवों को भी जलाती, भभकाती, मारती, काटती और दुःखी करती है और खुद भी कटती-मरती और छिन्न-भिन्न होती रहती है। ___इस सूत्र में नारक जीवों की परस्पर मार-काट और उनके अपनी वैक्रिय-शक्ति से निर्मित शस्त्रों का उल्लेख किया गया है। नरकपाल द्वारा दिया जाता हुआ दुःख तो तीसरी नरक तक ही है। आगे एक-दूसरे आपस में लड़-कट कर दुःखी होते हैं। ... तत्थ य मोग्गर-पहारचुण्णिय-मुसुंढि-संभग्ग-महियदेहा जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया के इत्थ सचम्मका विगत्ता णिम्मूलुल्लूणकण्णो?-णासिका छिण्णहत्थपाया, असि-करकय-तिक्ख-कोंत-परसुप्पहारफालिय-वासीसंतच्छितंगमंगा कलकलमाणखार-परिसित्त-गाढडझंतगत्ता कुंतग्गभिण्णजज्जरियसव्वदेहा विलोलंति महीतले विसूणियंगमंगा। शब्दार्थ - तत्थ - नरक में, मोग्गरपहारचुण्णिय - मुद्गर से मार कर उनके शरीर को चूर-चूर कर दिया जाता है, मुसुंढि संभग्ग - मुसुंढी से शरीर के टुकड़े कर दिये जाते हैं, महियदेहा - शरीर को दही के समान मथा जाता है, जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया - कोल्हू जैसे यंत्र में पीले जाने के कारण उनके शरीर के अंगोपांग कटकर कम्पित होते हैं, के इत्थ - वहाँ कई जीवों के, सचम्मका विगत्ता - सारे शरीर का चमड़ा उधेड़ दिया जाता है, णिम्मूलुल्लूणकण्णोद्रुणासिका - मूल सहित कान, ओंठ और नासिका काट दिये जाते हैं, छिण्णहत्थपाया - हाथ और पांव काट डालते हैं, असिकरकयतिक्खकोंतपर-सुप्पहारफालिय - किसी के शरीर को तलवार, आरी, तीखे भाले एवं कुल्हाड़ी के प्रहार से फाड़-चीर दिया जाता है, वासीसंतच्छितंगमंगा - उनके शरीर को वसुले से छिला जाता है, कलकलमाणखार-परिसित्तगाढडझंतगत्ता - कलकल आवाज करता हुआ, उबलता हुआ क्षार जल डालकर उनका शरीर जलाया जाता है, कुंतग्गभिण्ण - भाले से भेद कर, जज्जरियसव्वदेहासारे शरीर को जर्जरित कर दिया जाता है, विसूणियंगमंगा - मार-पीटकर उनका शरीर फुला दिया जाता है। ऐसे उत्कृष्ट एवं घोर दुःख से पीड़ित होकर नारक जीव, महीतले - पृथ्वीतल पर, विलोलंतिलोटते और तड़पते रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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