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________________ 194 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०५ **************************************************************** ममत्व वाले होते हैं, भवण वाहण - भवन और वाहन, जाणविमाणसयणासणाणिं - यान, विमान और शयन आसन, णाणाविहवस्थ - विविध प्रकार के वस्त्र और, भूसणा - आभूषण, पवरपहरणाणि - उत्तम शस्त्र, णाणामणि पंचवण्णदिव्यं - पाँच प्रकार के दिव्य वर्णों वाली मणियों का समूह, भायणविहिं - भाजनों का समूह, णाणाविहकामरूवे - इच्छानसार विविध प्रकार के रूप बनाने वाली, वेउव्वियअच्छरगणसंघाते - वैक्रिय से बनाए हुए वस्त्रादि से विभूषितं अप्सराओं पर, दीवसमुद्दे - द्वीप समुद्र, दिसाओ विदिसाओ - दिशा और विदिशाएँ, चेइयाणि - चैत्यवृक्ष, वणसंडे - वनखण्ड, पव्वए - पर्वत, गामणयराणि - ग्राम नगर, आरामुग्जाणकाणणाणि - आराम, उद्यान और कानन, कूव-सरतलागवाविदीहिय - कूप, सरोवर तालाब बावड़ी दीर्घिका, देवकुलसभप्पववसहिमाइयाहिं - देवकुल सभा प्रपा और वसती आदि में, बहुयाई - बहुत-से, कित्तणाणि - कीर्तन योग्य स्थान, परिगिण्हित्ता - ग्रहण करके, परिग्गहं - परिग्रह, विउलदव्वासारं - बहुत-से उत्तमोत्तम द्रव्यों का, देवावि - देव, सइंदगा - इन्द्र सहित, ण - नहीं, तित्ति - तृप्ति, ण तुट्ठि - तुष्टि भी नहीं, उवलभंतिप्राप्त करते, अच्चंतविउललोहाभिभूयसत्ता- अत्यंत विस्तृत लोभाभूित होकर, वासहरइक्खुगारवट्ठपव्यय - वर्षधर, इषुकार, गोल पर्वत, कुंडलरुयगवरमाणुसोत्तर - कुंडल पर्वत, रुचक पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदहिलवणसलिलदहपइरइकरअंजणकसेलदहिमुहवपाउप्पायकंचणकचित्तविचित्तजमकवर-सिहरकुडवासी- कालोदधि समुद्र, लवण समुद्र, नदी, हृदपति, रतिकर, अंजनक, दधिमुख, * अवपात, उत्पात काञ्चनक, चित्र विचित्र और यमकवर पर्वतों के शिखर पर निवास करने वाले देव, वक्खार अकम्मभूमिसु - वक्षस्कार तता अकर्मभूमि में निवास करने वाले। भावार्थ - ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत। कल्पोपपन्न में - 1. सौधर्म 2. ईशान 3. सनत्कुमार 4. माहेन्द्र 5. ब्रह्मलोक 6. लान्तक 7. महाशुक्र 8. सहस्रार 9. आणत 10. प्राणत 11. आरण और 12. अच्युत। ये बारह जाति के वैमानिक देव कल्पविमानवासी हैं। कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं - ग्रैवेयक और अनुत्तर। ये देव महान् ऋद्धि-सम्पन्न तथा उच्च प्रकार के हैं। ये देवगण, अपनी-अपनी परिषद् के साथ परिग्रह में अत्यन्त आसक्त रहते हैं। वे देव भवन, वाहन, यान, विमान, शयन, आसन और विविध प्रकार के वस्त्राभूषण, उत्तमकोटि के शस्त्र, पाँच प्रकार के वर्ण वाली दिव्य मणियों के समूह, भाजनों का समूह और इच्छानुसार विविध प्रकार के मोहक रूप बनाने वाली अप्सराओं पर ममत्व रखते हैं। द्वीप, समुद्र, दिशाविदिशाएँ, चैत्यवृक्ष, वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, नगर, आराम, उद्यान, कानन, कूप, सरोवर, तालाब, बावड़ी, दीर्घिका (बड़ी बावड़ी) देवकुल सभा, प्रपा (प्याऊ) और वसति आदि तथा बहुत-से कीर्तिसम्पन्न अथवा कीर्तन के स्थानों में तथा बहुत-से उत्तमोत्तम द्रव्यों का परिग्रह संग्रह करके भी वे देव और देवेन्द्र न तो तृप्त होते हैं, न सन्तुष्ट रहते हैं। वे लोभ से अत्यन्त ग्रस्त हैं। इसी प्रकार वर्षधर, इषुकार, गोलपर्वत, कुण्डल पर्वत, रूचक पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधि-समुद्र, लवण-समुद्र, गंगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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