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________________ 298 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** 29. गुरु के उपदेश को रोक कर स्वयं बोलने लगे। 30. गुरु की कही संक्षिप्त बात को उस सभा में ही बार-बार या विस्तार से कहने लगे।... 31. रत्नाधिक के आसन-शय्या को पांवों से ठुकराने पर क्षमा नहीं माँगे। 32. गुरु के आसन-शय्या पर खड़ा रहे, बैठे या सोवे। 33. गुरु से ऊँचे या समान आसन पर खड़ा रहे, बैठे या सोवे तो आशातना लगे। (दशाश्रुतस्कन्ध 3) __ धर्म वृक्ष का स्वरूप जो सो वीरवर-वयण-विरइ-पवित्थर-बहुविहप्पयारो सम्मत्त-विसुद्ध-मूलो धिइकंदो विणयवेइओ णिग्गय-तिल्लोक्क-विउलजस-णिविड-पीण-पवरसुजायखंधो पंचमहब्बय-विसालसालो भावणतयंतज्झाण सुहजोग-णाणपल्लवरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सील-सुगंधो अणण्हवफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि-सिहर-चूलिआ इव इमस्स मोक्ख-वर-मुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवरवरपायवो चरिमं संवरदारं। . शब्दार्थ - वीरवर-वयण-विरइ-पवित्थर-बहुविहप्पयारो - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वचन से की हुई परिग्रह निवृत्ति के विस्तार से जो धर्म-वृक्ष उत्पन्न हुआ वह अनेक प्रकार का है, सम्मत्त विसुद्धमूलो - सम्यकत्व रूप विशुद्ध मूल वाला, धिइकंदो - धैर्य रूपी कंद, विणयवेइओ - . विनय रूप वेदिका, णिग्गय-तिलोक्क विउल जस-णिविड पीणपवर-सुजाय-खंधो - तीनों लोकों में व्यापक विशाल यश रूप सघन मोटा और लम्बाई युक्त बड़े स्कन्ध वाला, पंचमहव्वय-विसालसालोपांच महाव्रत रूपी विशाल शाखा वाला, भावणतयंत झाणसुहजोगणाणपल्लवरंकुरधरो - अनित्यता आदि भावना रूप त्वचा और धर्म-ध्यान एवं शुभ योग तथा ज्ञान रूप प्रधान पल्लव के अंकुरों को धारण करने वाला, बहुगुणकुसुमसमिद्धो - बहुत-से उत्तम गुण रूपी फूलों से समृद्ध, सीलसुंगधो - शील के सुगन्ध वाला, अणण्हवफलो - अनाश्रव रूप फल वाला, मोक्ख-वरबीजसारो - मोक्ष रूप उत्तम बीज के सार वाला, मंदरगिरि-सिहर-चूलिआ - मन्दराचल पर्वत के शिखर की चोटी के, इव - समान, इमस्स - उसका, मोक्खवर-मुत्तिमग्गस्स - मोक्ष में जाने के लिए निर्लोभिता रूपी जो मार्ग है, सिहरभूओ - शिखर रूप, संवरवरपायवो - अपरिग्रह के उत्तम संवर रूप वृक्ष, चरिमं संवरदारं - अन्तिम संवरद्वार। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा से, परिग्रह से सर्वथा विरत होकर धर्म रूपी वृक्ष का आरोपण करना है। यह धर्मवृक्ष अत्यन्त विस्तृत है और इसकी भेद रूप शाखाएं बहुत हैं। इस अपरिग्रह रूपी धर्म वृक्ष का सम्यग् दर्शन रूपी विशुद्ध मूल है। धृति रूप कन्द है, विनय रूपी वेदिका से धर्मवृक्ष सुशोभित है। तीन लोक में व्याप्त यश, इस धर्मवृक्ष का स्थूल पुष्ट एवं सुदृढ़ स्कन्ध है। पांच महाव्रत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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