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________________ अकल्पनीय-अनाचरणीय 299 **************************************************************** रूपी विशाल शाखाएं हैं। अनित्यादि भावनाएँ इस वृक्ष की त्वचा (छाल) धर्म-ध्यान तथा मन, वचन और काया के शुभ योग और सम्यक् ज्ञान रूपी अंकुरित पल्लव हैं। अनेक प्रकार के गुण रूपी कुसुमों से यह धर्मवृक्ष समृद्ध है। धर्मवृक्ष के गुण रूपी पुष्पों से निकली हुई शील रूपी सुगन्ध से समस्त वातावरण सुगन्धित हो रहा है। संवर रूपी फल से धर्मवृक्ष समृद्ध है। मोक्ष रूपी बीज, धर्म-वृक्ष का परमोत्तम सार है। मोक्ष रूपी सुमेरु पर्वत के शिखर की चूलिका पर पहुँचने के लिए अपरिग्रह महाव्रतनिर्लोभता-सुमार्ग है। अपरिग्रह महाव्रत इस संवर रूपी.धर्मवृक्ष के शिखरभूत हैं। यह महाव्रत संवर धर्म का अन्तिम द्वार है। __विवेचन - इस सूत्र में सूत्रकार महर्षि ने अपरिग्रह व्रत अथवा संवर-धर्म को वृक्ष की सुन्दर उपमा से उपमित किया है। धर्मरूपी कल्पवृक्ष का मूल सम्यग् दर्शन बतलाया है। सम्यग् दर्शन रूपी मूल से प्रारम्भ करके मोक्ष रूपी सार पदार्थ पर्यन्त अन्तिम परिणाम बड़ी उत्तमता के साथ प्रतिपादन किया है। बिना सम्यग् दर्शन रूपी मूल के न तो धर्म रूपी कल्पवृक्ष उत्पन्न हो सकता है और न पत्र, पुष्प यावत् मुक्ति रूपी सार पदार्थ मिल सकता है। नन्दी सूत्र में धर्म को सुदर्शन पर्वत की उपमा देते हुए सम्यग् दर्शन को पर्वतराज की पीठिका (नीव) के समान आधारभूत बतलाया है। सम्यक्त्व-संवर रूप मूल में विकसित होता हुआ धर्मवृक्ष, मुक्ति रूपी सम्पूर्ण संवर में परिपूर्ण होकर शाश्वत हो जाता है। . अकल्पनीय-अनाचरणीय ... जत्थ ण कप्पड़ गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मंडब-दोणमुह-पट्टणा-समगयं च किंचि अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा तसथावरकायदव्वजायं मणसा वि परिघेत्तुं ण हिरण्ण-सुवण्ण-खेत्तवत्थु ण दासी-दास-भयग-पेस-हय-गय-गवेलगं च ण जाणजुग्ग-सयणासणाई म छत्तगं ण कुंडिया ण उवाणहा ण पेहुण-वीयण-तालियंटगाण या वि अय-तउय-तंब-सीसग-कंस-रयय-जाय-रूव-मणिमुत्ताहार-पुडग-संख-दंतमणि-सिंग-सेल-काय-वर-चेल-चम्मपत्ताई महरिहाई परस्स अज्झोववायलोहजणणाइं परियड्डेउं गुणवओ ण या वि पुष्फ-फल-कंद-मूलाइयाइं सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाई तिहिं वि जोगेहिं परिघेत्तु ओसह-भेसज्ज-भोयणट्टयाए संजएणं किं कारणं? अपरिमियणाणदंसणधरेहिं सील-गुण-विणय-तव-संजमणायगेहिं तित्थयरेही सव्वजगज्जीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाणं दिट्ठाण कप्पड़ जोणिसमुच्छेओ त्ति तेण वजंति समणसीहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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