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________________ 304 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ - **************************************************************** उग्गम-उप्पायणेसणाएं सुद्धं वरगय-चुयचवियचत्तदेहं च फासुयं वरगय-संजोगमणिंगालं विगयधूमं छट्ठाण-णिमित्तं छक्काय-परिरक्खणट्ठा हणि हणि फासुएणभिक्खेणं वट्टियव्वं। शब्दार्थ - अह - अब, केरिसयं - कैसा आहार ग्रहण करना, पुणाइ - पुनः, कप्पइ - कल्पता है, जं तं - जो, एक्कारस पिंडवायसुद्धं - ग्यारह पिंडपात से शुद्ध, किणण-हणण-पयण - खरीदना, हिंसा करना और पकाना, कयकारियाणुमोयण - कृत, कारित और अनुमोदित, णवकोडिहिं सुपरिसुद्धं - नव कोटियों से पूर्ण शुद्ध, दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं - एषणा के दस दोषों से रहित, उग्गम-उप्पायणेसणाए सुद्धं - उद्गम और उत्पादन रूप सोलह-सोलह दोषों से शुद्ध, ववगयचयचविय-चत्तदेहं - जिसमें से जीव चव गये हैं. फासयं - प्रासक. ववगय-संजोगमणिंगालं - संयोग और इंगाल दोष से रहित, विगय धूम - धूम दोष से रहित, छट्ठाण णिमित्तं - छह कारणों के निमित्त वाला, छक्कायपरिरक्खणट्ठा - छह काय के जीवों की रक्षा के लिए, हणि हणि फासुएणभिक्खेणं वट्टियव्वं - प्रतिदिन निर्दोष भिक्षा से निर्वाह करना चाहिए। ___ भावार्थ - अकल्पनीय आहारादि के त्याग का उल्लेख करने के बाद कल्पनीय आहारादि का विधान करते हुए सूत्रकार बतलाते हैं कि - अब किस प्रकार का आहारादि ग्रहण करने योग्य है? जो आहार ग्यारह प्रकार से पिण्डपात से विशुद्ध हो, नव-कोटि से परिशुद्ध हो, दस दोषों से रहित हो, उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से वंचित होकर शुद्ध निर्दोष हो, निर्जीव, चेतना-रहित-प्रासुक हो। मिश्र भी नहीं हो, परिभोगैषणा संयोजना, अंगार और धूम दोषों से रहित और छह कारण से लिया जाता हो, तो ऐसा आहार कल्पनीय है। छह काय जीवों की रक्षा के लिए साधु को प्रतिदिन निर्दोष भिक्षा से प्राण धारण करना चाहिए। विवेचन - आहारादि के दोषों को टालकर निर्दोष आहारादि लेने का निर्देश इस सूत्र से किया गया है। इस सूत्र में थोड़े शब्दों में ही विशिष्ट नियमों का सूचन किया है। जैसे - ___ ग्यारह प्रकार के पिण्डपात से विशुद्ध - आचारांग सूत्र श्रु० 2 के 'पिण्डैषणा' नामक प्रथम अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में आहार की जो विधि बताई है, उसके अनुसार निर्दोष आहार लेना। . नौ कोटि परिशुद्ध - दस प्रकार के दोषों से मुक्त, एषणा उद्गम और उत्पादन दोषों से रहित। इनका स्वरूप पृ० 219 पर है, वहाँ से देख लेना चाहिए? संयोग - संयोजना दोष-स्वाद बढ़ाने के लिए लाई हुई भिन्न भोज्य-वस्तु में वस्तु को मिलाना, जैसे-दाल आदि में नींबू आदि का आचार, मसाला आदि। ___अंगार-दोष - रस-लोलुप होकर निर्दोष आहार को भी आसक्तिपूर्वक खाना। इससे संयम में आग लग जाती है। - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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