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________________ १४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ जलगए - जलगत-जल में रहे हुए त्रस जीव, अणलाणिलतण-वणस्सइगणणिस्सिए - अग्नि, वायु, तृण और वनस्पति के समूह के आश्रय से, व - और, तम्मयतज्जिए - तन्मय-उन्हीं के स्वरूप वाले और उनसे ही जीने वाले, तयाहारे - उन्हीं के आधार से रहे हुए या उन्हीं का आहार करने वाले, चेवऔर, तप्परिणयवण्णगंधरसफास-बोंदिरूवे - वैसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर रूप में परिणत, अचक्खुसे चक्खुसे य - कई जीव आँखों से नहीं दिखाई देने वाले हैं, असंखे - वैसे असंख्य, तसकाइए - त्रसकाय जीवों को, य - और, अणंत - अनन्त, सुहुमबायरपत्तेयसरीरणाम-साहारणे - सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक और साधारण शरीर वाले, थावरकाए - स्थावर काय के, जीवे - जीव, परिजाणओजानबूझ कर, य - और, अवियाणओ - बिना जाने, इमेहिं - इन, विविहेहिं - विविध, कारणेहिं.कारणों से, हणंति - हिंसा करते हैं। . भावार्थ - मूर्ख अज्ञानी एवं अबोध पापीजन, उपरोक्त तथा अन्य अनेक कारणों से त्रस प्राणियों की हिंसा करते हैं और बहुत-से एकेन्द्रिय प्राणियों तथा उनके आश्रित रहने वाले दूसरे छोटे त्रस जीवों का समारम्भ करते हैं। वे दीन प्राणी अरक्षित. निराश्रित. अनाथ और बन्धबान्धवों से रहित हैं और अपने-अपने कर्म बन्धनों की दृढ़ बेड़ियों से बंधे हुए हैं। बुरे और अशुभ परिणाम वाले मन्दबुद्धि लोग इन जीवों को नहीं जानते। उनकी पापमय बुद्धि में इन जीवों के हिताहित का विवेक नहीं है। वे अज्ञानीजन न तो पृथ्वीकाय के जीवों को जानते हैं और न पृथ्वीकाय के आश्रय से रहे हुए अन्य स्थावर और त्रस जीवों को जानते हैं। वे जलकायिक तथा जलाश्रित रहने वाले जीवों को भी नहीं जानते। वे अग्नि, वायु, तृण और वनस्पतिकाय के जीवों और उनके आश्रय से रहने वाले अन्य जीवों को भी नहीं जानते। ये पृथिव्यादि मय जीव तथा उनके सहारे रहने वाले और उन्हीं के आधार से जीने वाले तथा उन्हीं का आहार करने वाले हैं, उनके शरीर पृथिव्यादि के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रूप से परिणित हैं। उनमें से कई आँखों से दिखाई देते हैं और कई दिखाई नहीं देते। त्रस जीवों की तथा सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक और साधारण शरीर वाले असंख्य एवं अनन्त स्थावर जीवों की जानबूझ कर या अनजानपन से हिंसा करते हैं। विवेचन - पूर्वोक्त पाठ में जीव-हिंसा के कुछ कारण बतलाये हैं। इन कारणों के अतिरिक्त भी ऐसे सैकड़ों कारण हैं कि जिनसे प्रेरित होकर, धर्म-अधर्म और हेयोपादेय के विवेक से रहित मूढजन, हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। हिंसादि प्रवृत्ति में जीव की अमर्यादित इच्छा, आशा एवं तृष्णा मुख्य रहती है। इच्छा और तृष्णा पर विवेक का अंकुश नहीं होने के कारण हिंसक-प्रवृत्ति बढ़ती ही रहती है। विवेक का अंकुश सम्यक्बोध होने पर ही लग सकता है। जिसकी आत्मा में बोध का अभाव है, वह अज्ञानी है। विद्या, बुद्धि और कला में निपुण होते हुए भी सम्यक्बोध के अभाव में हिंसक-प्रवृत्ति बढ़ती है-विशेष बढ़ती है। स्वार्थ, द्वेष, वैर आदि दूषित भावों के चलते असम्यग विद्या अधिक संहारक हो जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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