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________________ 276 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०४ **************************************************************** पालन करने वाले को उपरोक्त बातें, बंभचेरे - ब्रह्मचारी को, वज्जियव्वाइं - वर्जना करना चाहिए, सव्वकालं - सदाकाल। भावार्थ - ब्रह्मचर्य के शुद्धतापूर्वक पालन करने से ही सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु होते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष रीति से पालन करने वाला ही ऋषि है, मुनि है, संयत है और वही भिक्षु है। ब्रह्मचर्य महाव्रत के साधक को न तो इन्द्रियों के विषयों में रति (रुचि-आसक्ति) रखनी चाहिए न स्त्रियादि पर राग रखना चाहिए और न त्याग विरति आदि उत्तमगुणों तथा अमनोज्ञ वर्णादि पर द्वेष करना चाहिए, क्योंकि रति, राग और द्वेष से मोह की वृद्धि होती है। वैसा कार्य नहीं करना चाहिए. जिसमें कोई सार नहीं हो। प्रमाद को त्याग कर अप्रमत्त बने और शय्यातरपिण्ड ग्रहण आदि शिथिलाचार को छोड़ कर शुद्धाचारी बने। सुखशीलियापन को अपना कर शरीर पर घृत, तैल आदि का मर्दन, अभ्यंग, उबटन और स्नानादि नहीं करे। काँख, मस्तक, हाथ, पांव और मुख को बार-बार धोना, पगचम्पी कराना, शरीर का मर्दन करना, चन्दनादि का लेप करना, सुगन्धित चूर्णादि से शरीर को सुगन्धित करना, धूप से सुवासित करना, शरीर को अलंकृत एवं सुशोभित करना, नखकेशादि संवारना और चारित्र को बकुश (अचारित्र से मिश्रित) करना आदि दूषणों का त्याग करना चाहिए। हँसनाहँसाना, विकृत अथवा विकारोत्पादक वचन बोलना, गायन, वादन, नृत्य और नाटक करना आदि कार्य . और नटों के खेल, रस्सी पर चढ़ कर किया जाने वाला खेल, मल्लों की लड़ाई और भाँड आदि विदूषकों के चोचले और इसी प्रकार के अन्य दृश्य एवं शब्द आदि देखना-सुनना ब्रह्मचारी के लिए वर्जित है। ये तप-संयम और ब्रह्मचर्य के लिए घातक एवं उपघातक हैं। ये शृंगार-रस के स्थान हैं। ब्रह्मचर्य के पालक को इन सभी दोषों का सदा के लिए त्याग करना चाहिए। विवेचन - इस सूत्र में सूत्रकार महर्षि, ब्रह्मचर्य शुद्धि का उपदेश करते हुए कामवर्द्धक वासना जगाने वाले मोह-मद को उत्तेजित कर ब्रह्मचर्य का नाश करने वाले निमित्तों से बचने का उपदेश कर रहे हैं। जिस प्रकार धनवान् मनुष्य चोर-डाकुओं और जेबकतरों से सावधान रहता है। उसी प्रकार ब्रह्मचारी को भी इन विकारी दृश्यों, शब्दों, रसों, गन्धों और स्पर्शों से बचते ही रहना चाहिए। तभी ब्रह्मचर्य रूपी आत्म-धन सुरक्षित रहता है। ब्राह्मण - जो ब्रह्मचर्य का शुद्धतापूर्वक पालन करे। सूत्रकार इसी को 'सुबंभणो' - उत्तम ब्राह्मण कहते हैं। वैसे सर्वत्यागी महाव्रतधारी साधु को भी ब्राह्मण विशेषण लगाया है और श्रावक को भी। सुब्राह्मण तो ब्रह्मचर्य का विशुद्ध एवं पूर्णरूप से पालक ही हो सकता है। ब्रह्मचर्य रक्षक नियम भावियव्वो भवइ य अंतरप्या इमेहिं तव-णियम-सील जोगेहिं णिच्चकालं। किं ते? अण्हाणग-अदंतधावण-सेय-मल-जल्लधारणं मूणवयकेसलोए य खम-दम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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