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________________ तिर्यंच योनि के दुःख ..... ४९ **************************************************************** निकलना कठिन हो जाता है। यदि अंगभंग हो जाये, गम्भीर चोट लगे, तो वहीं तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। उनकी साल-संभाल करने वाला कोई नहीं मिलता। मनुष्य अपना स्वार्थ सधता नहीं देखकर या किसी कारण से क्रुद्ध होकर पशु को इतनी जोर से मारता है कि उसकी हड्डियाँ भी टूट जाती है। कोई लंगड़ा हो जाता है, तो किसी की पसली टूट जाती है। ____ पशु को वश में रखने के लिए उसकी नासिका को बींधकर उसमें रस्सी डालते हैं और वह रस्सी मनुष्य अपने हाथ में रखता है। रस्सी डालते समय बैल या ऊंट को इतना जकड़ दिया जाता है कि . जिससे वह अपना बचाव भी नहीं कर सकता और चुपचाप शूल भोंक कर नासिका फोड़ने और रस्सी डालने की तीव्र वेदना सहता रहता है। इस नकेल के द्वारा मनुष्य उस बलवान् पशु को अपने वश में रखता है और मनचाहे काम लेता है। नकेल के खिंचने से पशु को वेदना होती है, परन्तु उसकी वेदना को कौन देखे? मनुष्य उसके सुख-दुःख का विचार नहीं करता। मारते-पीटते, संतापित करते, काम करने के लिए विवश करते, यदि पशु थका हुआ अशक्त, रोगी और भारवहनादि काम के अयोग्य हो, तो भी मनुष्य उसकी दयनीय दशा को नहीं देखता और अपने स्वार्थ के लिए उसे काम में लगा देता है। यदि अशक्ति के कारण वह भार ढोकर चल नहीं सकता या शक्ति से अधिक भार होने के कारण वहन करना दुभर होता है, तो मनुष्य उस पर प्रहार, करता है। निर्दय बनकर उसे पीटता है। शूल भोंकता है, चाबुक के जोरदार झपाटे बरसाता है और भार ढोने के लिए विवश करता है। मनुष्य स्वयं सुख चाहता है, किन्तु अपने अधीनस्थ पशु की सुखसुविधा नहीं देखता। अपनी अत्यन्त निर्दयता के कारण ही मनुष्य ऐसे दुःखों से भरपूर नारक भव और तिर्यंच भव पाता है। - मायापिइविप्पओग-सोय-परिपीलणाणि य सत्थग्मिविसाभिघाय-गलगवलावलण-मारणाणि य गलजालुच्छिप्पणाणि य पडलण-विकप्पणाणि य जावजीविगबंधणाणि य, पंजरणिरोहणाणि य सयूहणिद्धाडणाणि य धमणाणि य दोहिणाणि य कुदंडगलबंधणाणि य वाडगपरिवारणाणि य पंकजलणिमज्जणाणि य . वारिपवेसणाणि य ओवायणिभंग-विसमणिवडणदवग्गिजालदहणाई य। . शब्दार्थ - मायापिइविप्पओग - माता-पिता वियोग, सोयपरिपीलणाणि - शोक से प्रपीड़ित (अथवा श्रोत-नासिकादि बंधन से पीड़ित), सत्थग्गिविसाभिघाय - शस्त्र, अग्नि और विष आदि के अभिघात से, गलगवलावलणमारणाणि - गर्दन और सिंग को मरोड़कर मारने रूप, गलजालुच्छिप्पणाणि - मछली आदि के गले में कांटा फंसाकर अथवा जाल में फांसकर निकालना, पडलण - पचाना, विकंप्पणाणि - काटा जाना , जावज्जीविगबंधणाणि - जीवन पर्यन्त बांधे रखकर, पंजरणिरोहणाणि - पिंजरे बन्द रखकर, सयूहणिद्धाडणाणि - यूथ से पृथक् रखकर, धमणाणि - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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