________________ दत्तानुज्ञात नामक तृतीय संवर-द्वार अस्तेय का स्वरूप जंबू! दत्तमणुण्णाय-संवरो णाम होइ तइयं सुव्वया! महव्वयं गुणव्वयं परदव्वहरणपडिविरइ-करणजुत्तं अपरिमिय-मणंत-तण्हाणुगय-महिच्छ-मण-वयण-कलुस आयाण-सुणिग्गहियं सुसंजमिय-मण-हत्थपायणिहुयं णिग्गंथं णिट्ठियं णिरुत्तं णिरासवं णिब्भयं विमुत्तं उत्तमणर-वसभ-पवर-बलवग-सुविहियजण-सम्मत्तं परमसाहुधम्मचरणं। शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, दत्तमणुण्णायसंवरो - दत्तानुज्ञात संवर अर्थात् विधिपूर्वक दिया हुआ, णाम - नाम, होइ - है, तइयं - तृतीय, सुव्वया - हे सुव्रत!, महव्वयं - महाव्रत, गणव्वयं - गुणों में प्रधान, परदव्व-हरण-पडि-विरइ-करणजुत्तं - परद्रव्य हरण करने की विरति से युक्त, अपरिमियमंणंत- अपरिमित अनन्त, तण्हाणु-गय-महिच्छ - तृष्णापूर्वक अत्यन्त इच्छा से, मण-वयणकलस न और वचन कलषित होते हैं, आयाणसणिग्गहियं - उसका इस व्रत से सर्वथा निग्रह ससंजमियमणहत्थपायणिहयं - मन, हाथ और पांव संयम से रत रहते हैं. णिग्गंथं - ग्रन्थियों से रहित, णिट्ठियं - प्रधान, णिरुत्तं - परम उपादेय, णिरासवं - आस्रव-रहित, णिब्भयं - भय-रहित, विमुत्तं - मुक्त, उत्तम पर-वसभ-पवर-बलवग-सुविहियजण-सम्मत्तं - मनुष्यों में उत्तम वृषभ के समान श्रेष्ठ एवं परम बलवान् महापुरुषों द्वारा सम्मान्य, परमसाहुधम्मचरणं- परम धर्म समझकर उत्तम साधु पुरुषों द्वारा आचरित। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं - 'हे सुव्रती जम्बू! दत्तानुज्ञात (दत्त-दिये हुए आहारादि, अनुज्ञात-'ले लो'-इस प्रकार आज्ञा प्राप्त पीठ-फलकादि) नामक यह तीसरा संवर द्वार है। यह महान् . व्रत है, सदगणों का प्रधान हेत है। यह संवर पराये द्रव्य को हरण करने की दवत्ति से रोक करने वाला है। जो मनुष्य अविरत हैं और जिनके मन में, संसार में रही हुई अनन्त वस्तुओं को प्राप्त करने की अपरिमित इच्छा है और प्राप्त द्रव्य को बिना व्यय किये दबाये रखने रूप महान् तृष्णा रही हुई है। उस जीव के मन में सदा कलुष बना रहता है। उसके वचन भी कलुष एवं तृष्णा से युक्त होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति इस व्रत को धारण करके पालन करता है। उसके यह अपरिमित इच्छा और तृष्णा रूपी महापाप रुक जाता है.। इच्छा और तृष्णा के रुक जाने से उस आत्मा का मन भी स्वच्छ एवं संयम में रत रहता है और वचन तथा हाथ-पांव आदि की प्रवृत्ति भी पाप से विरत रह कर संयमित रहती है। यह महाव्रत बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-लोभ की गाँठ से रहित है। समस्त धर्मों में प्रकर्ष उत्पन्न करने वाला-निष्ठायुक्त है। सर्वज्ञ भगवन्तों से उपदिष्ट है। आस्रव-रहित है, निर्भय बनाने वाला है और कने-विरत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org