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________________ हिंसा का दु:खद परिणाम २७ ************* ********************************* ***************** बलिदान करना धर्म-पुण्य या उत्तम कार्य है, अपना कुटुम्ब और देश का हित है, तो इस प्रकार की मति-पापमति है। "पाणवहकयरई" - "प्राणवधेकृतरतयः-प्राणवधेकृता-रति:-प्रीतियैस्ते" - जिसे जीव-हत्या के कार्यों से रति-प्रीति है। जीवों को मारने तड़पाने और दुःख देने में जिसे मजा आता है-ऐसे परमाधामी देव जैसे मनुष्य। "पाणवहरूवाणुट्ठाणा" - "प्राणवधरूपानुष्ठानाः तदेव आचरणं" - प्राणियों का वध करने रूप अनुष्ठान करने वाले। जो यज्ञ, याग और देवी देवता के नाम पर प्राणियों का वध करवा कर बलिदान रूप अनुष्ठान करवाते हैं। "पाणवहकहासु अभिरमंता" - "प्राणवधकथासु अभिरमंत:-चित्तं ददन्तः" जीव हिंसा की " कथा में रुचि रखने वाला। शिकार के वर्णन को रुचि पूर्वक सुनने वाला और वैसे लेख, कहानी एवं विवरण को (पत्र-पत्रिकाओं में छपती है) रस पूर्वक पढ़ और सुनकर मनोरंजन करने वाला है। सूत्रकार महर्षि ने उपरोक्त शब्दों में हिंसके लोगों की मनोवृत्ति का परिचय दिया है। ___हिंसा का दुःखद परिणाम तस्स य पावस्स फलविकागं अयाणमाणा वटुंति महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालबहुदुक्खसंकडं णरयतिरिक्खजोणिं। शब्दार्थ - तस्स - उस, णवस्स - पाप के, फलविवागं - फल-विपाक को, अयाणमाणा - . नहीं जानते हुए, महब्भयं - महा भयानक, दीहकालबहुदुक्खसंकडं - दीर्घकाल तक बहुत-से दुःखों और संकटों से भरी हुई, अविस्सामवेयणं - विश्राम रहित-निरंतर, असाता वेदना वाली, । णरयतिरिक्खजोणिं - नरक और तिर्यंच योनि को, वडंति - बढ़ाते हैं। .. . भावार्थ - हिंसक जीव, हिंसा-जन्य पाप के फलविपाक को नहीं जानते हुए अपने पाप से नरक और तिर्यंच योनि की ओर बढ़ते हैं और अपने लिए अनेक प्रकार के महान् भयंकर दुःखों और संकटों की ऐसी परम्परा का निर्माण कर लेते हैं कि जिसमें विश्राम का कोई समय ही नहीं है, निरन्तर दुःख ही दुःख और संकट ही संकट बने रहते हैं। विवेचन - सूत्रकार ने हिंसा से उत्पन्न पाप के परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि वे पापी जीव, पाप के भयंकर परिणाम को नहीं जानते हुए पाप करते हैं और अपने लिए दुःखों का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान ही इन महान् भयानक दुःखों और संकटों का मूल है। अज्ञान और कुज्ञान के अन्धेरे में रहकर जीव, सुख और शांति के सदन में पहुँचने के बदले दुःखों और संकटों के, नरक-तिर्यंच गति के समान गहरे अन्ध-कूप में गिर जाता है, जिसमें केवल दुःख ही दुःख भरा है। उस गहन-गम्भीर अन्धकूप में से निकलना अत्यन्त कठिन है और वहाँ सुख का तो. लेश भी नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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