SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसंहार 267 **************************************************************** आमरणंतं - मरण पर्यंत, एसजोगो - इस व्रत का, णेयव्यो - पालन करना, धिइमया - धैर्य सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो - अनाश्रव, अकलुसो - अकलुषता रहित, अच्छिदो - छिद्र रहित, अपरिस्सावी - कर्मों के प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश रहित, सव्व जिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित। . भावार्थ - इस प्रकार पांच भावनाओं से युक्त इस संवर-द्वार का सम्यक् रूप से पालन करने से महाव्रत सुरक्षित रहता है। इसलिए धैर्य-सम्पन्न, बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि मन वचन और काया से इस महाव्रत की रक्षा करता हुआ, इन पांच भावनाओं का जीवन पर्यंत पालन करता रहे। यह महाव्रत आस्रव का निरोधक, कलुषित भावों से रहित शुभ भावों से युक्त, छिद्र-रहित, कर्मों के आगमन का अवरोधक तथा संक्लेश से रहित है। यह भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी जिनेश्वर भगवंतों द्वारा आज्ञापित (उपदिष्ट) है। ___ एवं तइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहिय तीरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आंधवियं सुदेसियं पसत्थं। . .. ॥तइयं संवरदारं सम्मत्तं त्तिबेमि। : शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, तइयं - तृतीय, संवरदारं - संवर-द्वार, फासियं - स्पृष्ट, पालियं - पालित, सोहियं - शोभित, तीरियं - तीरित, किट्टियं - कीर्तित, आराहियं - आराधित, भवइ - होता है, एवं - इस प्रकार, णायमुणिणा भगाया - ज्ञात कुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने, पण्णवियं - कहा है, पंरूवियं - प्ररूपणा की, पसिद्धं - प्रसिद्ध, सिद्धं - सिद्ध, सिद्धवरसासणमिणं - अपने कार्य को सिद्ध करने वाले तीर्थंकर भगवान् की प्रधान आज्ञा युक्त है, आघवियं - सम्यक् प्ररूपित है, सुदेसियं- / भली प्रकार उपदेशित है, पसत्यं - प्रशस्त है, तइयं - तृतीय, संवरदारं - संवरद्वार, सम्मत्तं - समाप्त हुआ, त्तिबेमि- ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - इस प्रकार यह तीसरे संवरद्वार का स्पर्शन, पालन एवं शोधन होता है, पार पहुंचाया जाता है, कीर्तित एवं आराधित होता है और जिनेश्वर की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है। इस प्रकार ज्ञातकुलोत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है, प्ररूपित किया है। यह मार्ग विश्व में प्रसिद्ध एवं प्रमाणों से सिद्ध है। समस्त प्रयोजन सिद्ध करने वाले ऐसे तीर्थंकर भगवंत की यह प्रधान आज्ञा है। भगवान् द्वारा प्ररूपित है। उत्तम प्रकार से उपदेशित है और प्रशस्त है। यह तृतीय संवरद्वार पूर्ण हुआ, ऐसा मैं कहता हूँ। ॥दत्तानुज्ञात नामक तृतीय संवरद्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy