________________ ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ संवरद्वार ब्रह्मचर्य की महिमा जंबू! इत्तो य बंभचेरं उत्तम-तव-णियम-णाम-दंसण-चरित्त-सम्मत्त-विणयमूलं यमनियमगुणप्पहाणजुत्तं हिमवंतमहंततेयमंतं पसत्थगंभिर-थिमियमझं अजवसाहुजणाचरियं मोक्खमग्गं विसुद्धसिद्धिगइणिलयं सासयमव्वाबाहमपुणब्भं पसत्थं सोमं सुभं सिवमयलमक्खयकरं जइवर-सारक्खियं सुचरियं सुभासियं णवरि मुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूर-धम्मियधिइमंताण य सया विसुद्धं सव्वं भव्वजणाणुचिण्णं णिस्संकियं णिब्भयं णित्तूसं णिरायासं णिरुवलेवं णिव्वुइघरं णियमणिप्पकंपं तवसंजममूलदलियणेम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं समिइगुत्तिगुत्तं। .. शब्दार्थ - जंबू - हे जम्बू!, इत्तो य - यहाँ से आगे, बंभचेरं - ब्रह्मचर्य व्रत, उत्तम-तव-णियमणाण-दसण-चरित्त-सम्मत्त-विणय-मूलं - उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्यक्त्व और विनय का मूल, यमनियमगणप्पहाणजुत्तं-यम, नियम और उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, हिमवंतमहंततेयमंतंहिमवान् पर्वत के समान महान् और तेजस्वी, पसत्थगंभीरथिमियमझं - जिसका मध्य-अंत:करण प्रशस्त, गंभीर और स्थिर है, अजवसाहुजणाचरियं - सरल भाव युक्त साधु पुरुषों से आसेवित, मोक्खमग्गं - मोक्ष का मार्ग, विसुद्धसिद्धिगइणिलयं - विशुद्ध मोक्ष गति के स्थानभूत, सासयमव्वाबाहमपुणब्भवं - शाश्वत, बाधा रहित और पुनर्जन्म को रोकने वाला, पसत्थं - प्रशस्त, सोमं - सौम्य, सुभं - शुभ, सिवमयलमक्खयकरं-शिव-निरुपद्रव अचल और अक्षय या पूर्णता प्रदान करने वाला, जइवरसारक्खियंप्रधान मुनियों से सुरक्षित, सुचरियं - भली प्रकार से आचरण किया हुआ, सुभासियं - सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट, णवरि - केवल, मुणिवरेहिं - उत्तम मुनियों ने, महापुरिसधीरसूरधम्मियधिइमंताण - उत्तम महापुरुषों, अत्यन्त साहसी, शूर, धार्मिक एवं धृतिमंत पुरुषों से, सया - सदा, विसुद्धं - पूर्ण विशुद्धि के साथ, भव्वं - भव्य, भव्वजणाणुचिण्णं - भव्यजनों द्वारा पालित, णिस्संकियं - शंका-रहित, णिब्भयंभय-रहित, णित्तुसं - तुष-निस्सारता से रहित, णिरायासं - खेद-रहित, णिरुवलेवं - स्नेह के उपलेप से रहित, णिव्वुइधरं - निवृत्ति-घर-चित्त-शांति का घर, णियमणिप्पकंपं - नियम से अविचल, तवसंजममूलदलियणेम्मं - तप और संयम के मूल-दल के समान, पंचमहव्वय सुरक्खियं - पांच महाव्रतों में विशेष सुरक्षित, समिइगुत्तिगुत्तं - पांच समिति और तीन गुप्तियों से गुप्त। "सुसाहियं' पाठ भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org