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________________ चक्रवर्ती की ऋद्धि १५९ **************************************************************** शोभित है, पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज - लम्बा झूलता हुआ श्रेष्ठ कलायुक्त उत्तम उत्तरीय वस्त्र-ऊपर का-उत्तरासन य चादर लटक रही है, मुहियापिंगलंगुलिया - अंगुठियों से अंगुलियाँ पीली दिखाई दे रही है, उजलणेवत्थरइयचेल्लगविरायमाणा - जो उज्वल एव सुखद वेशभूषा से अत्यन्त शोभायमान हैं, तेएण - तेज से, दिवाकरोव्व - सूर्य के समान, दित्ता - दिप्त, सायरणवत्थणियसहुरगंभीरणिद्धघोसा- जिनका स्वर, शरदकाल में उत्पन्न नवीन मेघ के समान गम्भीर तथा मधुर है, सुनने में सुखदायक है, उप्पण्ण - उत्पन्न प्राप्त है, समत्तरयण - समस्त रत्न, चक्करयणप्पहाणा - प्रधान चक्ररत्न भी जिनके पास है, णवणिहिवइणो - जो नौ निधि के स्वामी हैं, समिद्धकोसा - जिनका भण्डार समृद्ध है, चाउरंता - जो चातुरंत-चारों दिशाओं में-तीन और समुद्र और एक ओर हिमवान् पर्वत तक के स्वामी हैं, चाउरासिहि सेणाहिं - जो चारों प्रकार की-हाथी, घोड़ा रथ और पदाति सेना, समणुजाइज्जमाण-मग्गा - जिनके मार्ग का अनुगमन करती हुई पीछे चलती है वे, तुरयवई - अश्वपति, गयवई - गजपति, रहवई - रथपति, णरवई - नरपति, विपुलकुलवीसुयजसा - जिनके महान् कुल का यश सर्वत्र प्रसिद्ध है, सारयससिसकलसोमवयणा - शरद् काल के पूर्ण चन्द्रमा के समान सौम्य बदन है जिनका, सुरा- शूरवीर है, तिलोक्कणिग्गयपभावलद्धसदा - तीनों लोक में जिनका प्रभाव है, प्रसिद्धि है, समत्तभरहाहिवा - समस्त भरतक्षेत्र के अधिपति, णरिदा- नरेन्द्र, ससेल पर्वत सहित, वणकाणणं - वनों और उद्यानों, हिमवंत-सागरंतं - चूल हिमवंत पर्वत से समुद्रपर्यन्त, . धीरा : धैर्यवंत, भुत्तूणभरहवांस - भारतवर्ष का भोग करते हैं, जियसत्तू - सभी शत्रुओं कों जिन्होंने जीत लिये हैं, पवररायसीहा - राजाओं में श्रेष्ठ एवं सिंह के समान, पुवकडतवणभावा - पूर्वभव में किये हुए तप के प्रभाव से युक्त हैं, णिविट्ठसंचियसुहा - पूर्व संचित महान् सुखों के भोक्ता, अणेगवाससयमायसंतो- अनेक सैकड़ों वर्षों की आयु वाले, भजाहि-भार्याओं-रानियों के साथ, जणवयपहाणाहि- उत्तम देशों में, लालियंता - विलास करते हुए, अतुलसहफरिसरसरूवगंध - अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का, अणुभवेत्ता - अनुभव करते हुए उवणमति - प्राप्त होते हैं, मरणधम्म - मृत्यु को, अवितत्ता - अतृप्त ही, कामाणं - कामभोगों से। - भावार्थ - चक्रवर्ती महाराजाधिराज का बड़े-बड़े बत्तीस हजार राजा अनुगमन करते हुए, उनके निर्दिष मार्ग पर चलते हैं। वे चौसठ हजार यौवन-सम्पन्न उत्तम रानियों के नयनों के प्रिय होते हैं। उनके शरीर की प्रभा लाल वर्ण की है। उनके शरीर का वर्ण कमल के गर्भ, कोरंटक फूलों की माला, चम्पक-पुष्प तथा तप्त-स्वर्ण की रेखा के समान है। उनके सभी अंग सुडौल और सुन्दर हैं। उनके परिधान के लिए बड़े-बड़े नगरों में, निपुण कलाकरों द्वारा बनाये हुए और विविध प्रकार के रंगों से रंगे हुए वस्त्र होते हैं, जो मृगों के कोमल रोम से बने हुए, वृक्ष की छाल से निर्मित, चीन में बने हुए रेशमी तथा कौशेय रेशम से बने हुए बहुमूल्य होते हैं, जिनसे वे सुशोभित होते हैं। जिनकी कमर, करधनी से सुशोभित होती है। उनके मस्तक पर सुगन्धित चूर्ण और उत्तम गन्ध वाली पुष्पमाला सुशोभित हो रही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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