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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १
नरकपाल भयावने शब्दों में कहते हैं- 'इन्हें पकड़ो, मारो, जोर से मारो, इन्हें काटो, शूलों से छेदो इनकी चमड़ी उधेड़ दो, टुकड़े करो, आँखें निकाल डालो, इनके मुंह में उबलता हुआ शीशा उड़ेल दो।
'अरे, तू क्यों नहीं बोलता ? अपने पाप कर्मों को याद कर।' इस प्रकार नरकपालों द्वारा महान् भयंकर दुःख एवं त्रास से दुःखी बने हुए और महानगर के दाह के समान जलते हुए वे नारक जीव, दुःख भोगते हुए आक्रन्द करते हैं। वह नरक स्थान उन नारक जीवों की दुःख पूर्ण चित्कारों, विलापों एवं आक्रन्दों से व्याप्त रहा है। वहाँ सर्वत्र अनिष्ट ध्वनियाँ ही निकलती रहती है।
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विवेचन - उपरोक्त सूत्र में नारकों के महान् दुःखों का दिग्दर्शन कराया गया है। कितनी भयानक वेदना होती है -नरकों में। इस महावेदना का विचार करके ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पापकर्मों के दुष्परिणाम को जानकर, प्रथम से ही सावधान रहने वाले, अपनी आत्मा को बचा लेते हैं। आगमकार महर्षि अपनी वाणी द्वारा भव्य जीवों को सावधान करते हैं कि- 'हे मोहान्ध जीव ! संभल ! तू अपने दुराचार से अपनी ही घात कर रहा है। आज तुझे जो पाप मीठा लग रहा है, वह कच्चा पारा खाने के समान है। वह फूटकर जब भयानक कोढ़ के रूप में निकलता है, तब कैसी दुर्दशा होती है ? इसी प्रकार पापकर्मों का परिणाम भी इतने दारुण रूप में भोगना पड़ता है।'
'किं ण जंपसि सराहि पावकम्माई दुक्कयाइं' - अरे ओ पापी ! अब तू बोलता क्यों नहीं ? तेरी जबान क्यों बन्द हो गई है ? कहाँ गई तेरी वह पाप - शूरता ? याद कर हे दुष्ट ! तेरा वह पाप, वह दुष्कृत्य । उस समय तूं पाप करके कितना प्रसन्न हो रहा था ? यदि तुझे कोई समझाता, तो अपने घमण्ड और हठ में किसी की नहीं मानता था। उल्टा कुतर्क करके सन्मार्ग का खंडन और पाप मार्ग का मंडन करता था । ले, भोग अब उसका परिणाम यों विविध प्रकार से उनके पाप कर्मों का स्मरण कराते हुए नरकपाल, नैरयिक को दुःख देते हैं।
शंका- नरकपाल नारक जीवों को उनके पाप का दंड देते हैं, तो क्या यह उनका कर्त्तव्य है, अधिकार है ? उन्हें किसी महासत्ता (ईश्वर) ने नियुक्त किया है ?
समाधान- नहीं, न तो उनका यह अधिकार है और न किसी महासत्ता ने उन्हें नारक जीवों को पाप का दण्ड देने के लिए नियुक्त ही किया है। वे अपनी रुचि से ही नारकों को दुःख देते हैं। नारकों को दुःख देना उनका मनोरंजन खेल है। जिस प्रकार मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए निशानेबाजी से गिलोल, धनुष-बाण एवं बन्दूक से आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को मारकर प्रसन्न होते हैं, हिरण, खरगोश आदि पशुओं को मारते हैं, कई गुड़ पर मक्खियों को इकट्ठी कर, हजारों मक्खियों को अपनी इच्छा से मार डालते हैं। अहिंसक कहलाने वाले ऐसे कई जैनी भी राह चलते वृक्षों के पत्ते, पुष्प और डालियाँ आदि तोड़ते जाते हैं और उसमें सुख मानते हैं, वैसे यमकायिक- प्ररमाधामी देवों की भी इस प्रकार की रुचि होती है। उनका स्वभाव ही अनार्य, म्लेच्छ एवं असभ्य जाति के लोगों के समान हैजिनके खेल भी बीभत्स एवं क्रूर हों। पशुओं की हड्डियों को और सिंग को पहन कर खेलकूद करने
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