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________________ नरकपालों द्वारा दिये जाने वाले घोर दुःख ३९ *** ******************************** ******** कत्ताहि विकत्ताहि य भुजो हण विहण विच्छुब्भोच्छुब्भ-आकड्ड-विकड्ड किं ण जंपसि? सराहि पावकम्माइं दुक्कयाइं एवं वयणमहप्पगब्भो पडिसुयासहसंकुलो उतासओ सया णिरयगोयराणं महाणगरडज्झमाण-सरिसो णिग्घोसो, सुच्चइ अणिट्ठो तहियं णेरइयाणं जाइजंताणं जायणाहिं। शब्दार्थ - केइ - कोई, णिरणुकंपा - दया विहीन, जमकाइया - यमकायिक, पलायमाणाणंउन भागते हुए नारकों को, बला - बलात्कार से, घेत्तूण - पकड़ कर, हसंता - हँसते हुए, लोहदंडेहिंलोहे के डंडे से, मुहं - उनके मुंह को, विहाडेत्तुं - खोलकर, वयणसि - वदन-मुंह में, कलकलं - कलकल करते-उबलते हुए, ण्हं - शीशे को, छुभंति - डालते हुए, तेण दड्डासंतो - उससे जले हुए वे बिचारे, भीमाई - भयंकर, विस्सराई - विस्वर-आर्तनाद से, रसंति - चिल्लाते हैं, य - तथा वे, पारेयवगा व - कबूतर की तरह, कलुणगाई - करुणाजनक क्रन्दन, बहुरुण्णरुइयसहो - अत्यन्त अश्रुपात के साथ चित्कार करते हुए, परिदेविय - विलाप करते हुए, रुद्ध - रोके हुए, बद्धय - बांधे हुए, णारयारवसंकुलो - नारकों के आर्तनाद से पूर्ण, णीसिट्ठो - उनके मुंह से निकले हुए, रसिय - शब्द करते हुए, भणिय - बोलते हुए, कुविय - क्रोध करते हुए, उक्कूइय - महानाद करते हुए, णिरयपालतज्जियंनरकपाल के द्वारा धमकाये हुए, गिण्ह - पकड़ो, क्कम - मारो, पहर - प्रहार करो, छिंद - छिल दो, काट दो, भिंद - भेदन कर दो, उप्पाडेह - ऊपर उठाओ या खाल उतारो, उक्खणाहि - आँखें निकाल दो, कत्ताहि- काट डालो, विकत्ताहि - विविध प्रकार से काटो, हण - मार डालो, भुज्जो - फिर से, विहण - विशेष प्रकार से हनन करो, विच्छुब्भ - मुंह में शीशा डालो, उच्छुब्भ- उठाकर जोर से पटको अथवा मुंह में विशेष शीशा डीलो, आकड्ड - इसे घसीटो, विकड्ड - उल्टा घसीटो, किं ण जंपसि - क्यों नहीं बोलता?, पावकम्माई - अपने पाप-कर्मों को, दुक्कयाई - दुष्कर्मों को, सराहि - स्मरण कर, एवं - इस प्रकार, वयणमहप्पगब्भो - परमाधर्मियों के महान् शब्दों, तासओ - त्रास-दायक, महाणगरडझमाण-सरिसो - जलते हुए बड़े नगर के समान, तहियं - वहाँ, जायणाहिं - यातना से, जाइजंताणं - पीड़ित किये जाते हुए, णिरय गोयराणं - नरक गोत्र वाले, णेरइयाणं - नारकों का, पडिसुयासहसंकुलो-प्रतिध्वनि से व्याप्त, अणिट्ठो-अनिष्ट, णिग्योसो-निर्घोष, सुच्चइ - सुनाई देता है। . भावार्थ - कोई क्रूर-निर्दय यमकायिक देव, उन भागते हुए नारकों को बलपूर्वक पकड़ कर, लोहे का डंडा उनके मुंह में डाल कर खोलते हैं और उनके मुंह में उबलता हुआ शीशा उड़ेल देते हैं। उससे उन्हें महान् वेदना होती है। वे भयंकर रूप से तड़पते आक्रन्द करते और चिल्लाते हैं। उनकी छटपटाहट, आक्रन्द और विलाप देखकर वे यमदेव हंसते हैं। . उन बंधे हुए धूजते-कांपते रोते और आक्रन्द करते हुए नारकों के प्रति विशेष कुद्ध होते हुए वे * 'पावकम्माणं' के आगे 'कियाइ' पाठ भी कुछ प्रतियों में है, जिसका अर्थ - 'किए हुए' होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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