SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ अकर्तृत्ववादी ७७ **** ******************************************** ** कोई हाथी के समान बड़ा, कोई मनुष्यं, कोई पशु, पक्षी, सरीसृप, नारक और देव। कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई प्रसन्नचित्त तो कोई शोक-मग्न। कोई जन्मता है, तो कोई मरता है। कोई धर्मात्मा है, तो कोई पापात्मा। कोई पति है, तो कोई पत्नी, पुत्र, पुत्री, भगिनी आदि। कोई शोषक है, तो कोई शोषित, कोई स्वामी है, तो कोई सेवक, कोई धनाढ्य है, तो कोई दरिद्र। इस प्रकार विविध रूपों में जीवात्मा अपना भिन्नत्व प्रदर्शित कर रहे हैं। वह सर्वत्र एक ही आत्मा कैसे हो सकता है ? चन्द्रबिम्ब का दृष्टान्त भी अनुपयुक्त है। चन्द्र-बिम्ब तो सभी जलाशयों और जलपात्रों में एक-सा ही दिखाई देता है, किन्तु प्राणियों की स्थिति एक सी नहीं होकर विभिन्न प्रकार की है। अतएव एकात्मवाद अथवा अद्वैतवाद भी असत्य है। अकर्तृत्ववादी आत्मा को एकान्त अकर्ता मानने वाले सांख्य भी मृषावादी हैं, क्योंकि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में सकर्ता-हलन-चलन-खान-पानादि करता हुआ और मन से चिंतन करता हुआ देखा और अनुभव किया जाता है। आत्मा हिंसादि पाप और दानादि पुण्य तथा अहिंसादि धर्म का कर्ता और इनके फल का भोग करने वाला है। पुण्य-पाप का अकर्ता मानकर भी फल का भोक्ता मानना तो बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति मानना है, जो असत्य है। फल-भोग माना, तो उसका कारण पाप-पुण्य का कर्ता भी मानना ही पड़ेगा। ... केवल इन्द्रियों को ही कर्ता मानकर आत्मा को अकर्ता मानना भी असत्य है, क्योंकि आत्मा शरीर और इन्द्रियों से भिन्न नहीं, किन्तु कथंचित् भिन्न है तथा परिणामी है। ____आत्मा को सर्वथा नित्य मानना भी असत्य है। सर्वथा नित्य मानने पर सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष, गत्यान्तर, भवान्तर, जन्म-मरण आदि का अभाव मानना पड़ेगा। .वास्तव में आत्मा परिणामी नित्य है। वह नित्य - शाश्वत रहता हुआ भी विविध पर्यायों में परिणत होता रहता है। द्रव्यापेक्षा नित्य होते हुए भी नई पर्यायें उत्पन्न होती रहती हैं और पुरानी पर्यायें नष्ट होती रहती हैं। आत्मा उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य युक्त है। इसे एकान्त नित्य मानना असत्य है । - "अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म, आत्मा कापिलदर्शने॥" + टीकाकार ने विवेचन में - 'श्रीमद्भगवदगीता' अ. के २ श्लोक २३, २४ "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि.........."अच्छेयो..............को उद्धृत कर नित्यवाद का निरसन किया। किन्तु मेरे विचार से यह विशेष विचारणीय है, क्योंकि द्रव्यापेक्षा तो हम भी आत्मा को नित्य मानते हैं और गीताकार का कथन भी द्रव्यापेक्षा ही है। आगे श्लोक २७ में-"जातस्य हि भुवो मृत्युर्भुवं जन्म मृतस्य च।" इसमें उत्पाद और व्यय रूप पर्याय भी स्वीकार की है। इसलिए उपरोक्त श्लोक को एकान्त नित्यवाद का प्रवर्तक एवं समर्थक नहीं कहा जा सकता। यद्यपि स्थलों से एकात्मवाद भी झलकता है, परन्तु उद्धरित श्लोक तो द्रव्यापेक्षा ही स्वरूप बतलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy