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________________ ७६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ************************************************************* अर्थात् - मैं सभी के ऊपर अत्यन्त सामर्थ्य रखता हूँ। मुझ पर किसी की सत्ता नहीं है। मैं ही हूँ, जो अपने भक्तों को अणिमादि ऐश्वर्य दे सकता हूँ। इसीलिए मैं 'ईश्वर' कहलाता हूँ। - उपरोक्त उल्लेख में ईश्वरवादी का मन्तव्य स्पष्ट होता है। स्वयंभू ब्रह्मा और प्रजापति तो सृष्टि के.' स्वयं सजर्क-उत्पादक बनते हैं, किन्तु ईश्वर निमित्त मात्र रहता है। इस सृष्टि से ईश्वर से भी प्रजापति अत्यन्त शक्तिशाली हुआ, जो स्वयं विश्वकर्मा बन गया। वास्तव में यह भी कल्पना मात्र है। विष्णुमय जगत् विष्णुमय जगत् की मान्यता में कहा जाता है कि - "जलेविष्णुः स्थलेविष्णुः, विष्णुः पर्वतमस्तके। ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत्॥" अर्थात् - जल, स्थल, पर्वत के शिखर, अग्नि और वनस्पति आदि सभी में विष्णु है। यह सारा जगत् ही विष्णुमय है। यथा - पृथिव्यामाप्यहं पार्थ वायावग्नौ जलेप्यहं। सर्वभूतगतश्चाहं, तस्मात् सर्वगतोऽस्म्यहम्॥ हे पार्थ! मैं पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और समस्त भूतों में हूँ। इसलिए मैं सभी में हूँ। इसके अतिरिक्त अन्य कई उल्लेख हैं, जिनमें सारा संसार विष्णुमय बतलाया गया है। पापी, हत्यारा, व्यभिचारी आदि में जो विष्णु है, वही, पुण्यात्मा, धर्मी और दयालु में भी है। दुराचारी में भी और सदाचारी में भी। कीड़ी, कुंजर, देव, नारक सभी में एक ही विष्णु की मान्यता स्पष्ट ही मिथ्या है। कौन सुज्ञ मानेगा कि कत्लखाने में बैठकर पशुओं को निर्दयतापूर्वक काटने वाला और जगत् का ईश्वर ये दोनों एक ही हैं ? एकात्मवाद-अद्वैतवाद एकात्मवादी भी मानते हैं कि समस्त संसार में केवल एक ही आत्मा है। वह सर्वव्यापक है। उनका कहना है कि - "एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्॥" अर्थ - एक ही भूतात्मा प्रत्येक भूत-सभी प्राणियों में व्यवस्थित है। वह जल के पृथक्-पृथक् हजारों-लाखों घड़ों में प्रतिबिम्बित होते हुए चन्द्रमा के समान एक होकर भी बहुत दिखाई देता है। - वेदान्तियों का यह एकात्मवाद भी मिथ्या है, क्योंकि आत्मा भिन्न-भिन्न अनन्त हैं। यद्यपि स्वरूपापेक्षा समानत्व की दृष्टि से-संग्रहनय से-एक आत्मा कहा जा सकता है, तथापि द्रव्यापेक्षा सभी आत्माएं भिन्न एवं पृथक् हैं और अनन्त हैं। उन सबकी परिणति भिन्न है। कोई कुंथुए जैसा छोटा, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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