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________________ ७५ ईश्वरवादी. ************************************************************* 'भूतपति' भी प्रसिद्ध हुआ। फिर देवों ने रुद्र से कहा 'तू प्रजापति को बाण मारकर छेद दे।' रुद्र ने प्रजापति को बाण मारा। मृगरूप बना हुआ प्रजापति बाण के आघात से अधोमुख हो, उछल कर ऊँचा गया और मृगशिर नक्षत्र के रूप में आकाश में रह गया। रुद्र ने मृगरूप प्रजापति का पीछा किया और वह भी मृगव्याध के तारे के रूप में आकाश में रह गया। लालवर्ण वाली मृगी थी, वह भी रोहिणी नक्षत्र के रूप में आकाश में रह गई। ये सब आज तक एक-दूसरे के पीछे आकाश में घूम रहे हैं। इस प्रकार प्रजापति की सृष्टि रचना की कई कल्पनाएं हैं। ये सब कल्पनाएं अज्ञान-मूलक एवं कपोलकल्पित हैं। मनुष्यों और पशुओं के समान वेदोदय से अभिभूत होकर-मोहान्ध होकर अनैतिक कर्म करने वाला और अपने ही सृजित देवों के द्वारा निन्दित एवं प्रताड़ित व्यक्ति भी क्या परमात्मा माना जा सकता है ? वास्तव में इस प्रकार की मान्यता भी मृषावाद ही है। ईश्वरवादी प्रजापति के बाद सूत्रकार ने 'इस्सरेण य कयं त्ति केइ' शब्द से ईश्वर कर्ता की कल्पना का उल्लेख किया है। सूत्रकृतांग' में भी - "ईसरेण कड़े लोए" से ईश्वर-कर्तृत्ववादी का उल्लेख हुआ है। ईश्वरवादी अपने ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं, किन्तु निमित्त कारण मानते हैं। न्यायदर्शन में बताया है कि - 'ईश्वर मनुष्यों के कर्म का फल देता है। मनुष्यों का प्रयत्न निष्फल न हो जाये, इसलिए ईश्वर कर्मफल देते हैं। मनुष्यों को जो कर्मफल मिलता है, वह ईश्वर-प्रेरित है। बिना • ईश्वरीय व्यवस्था के जगत् अव्यवस्थित हो जाता है।" न्याय भाष्यकार वात्स्यायन का मत है - "गुणविशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः। तस्यात्मकल्पात् कल्पान्तरानुपपत्तिः। अधर्ममिथ्याज्ञानप्रमादहान्या धर्मज्ञानसमाधिसम्पदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः तस्य च धर्मसमाधिफलमणिमाद्यष्टविधमैश्वर्य संकल्पानुविधायो चास्यधर्मः प्रत्यात्मवृत्तीन् धर्माधर्म-संचयान् पृथिव्यादीनि च भूतानि प्रवर्तयति।" ___ अर्थ - गुण विशेष से युक्त आत्मा ही ईश्वर है। ईश्वर आत्म-तत्त्व से पृथक् नहीं है। ईश्वर में अधर्म, मिथ्याज्ञान तथा प्रमाद नहीं है। धर्म-ज्ञान और समाधि-सम्पदा से वह युक्त है अर्थात् धर्म, ज्ञान तथा समाधि विशिष्ट आत्मा ही ईश्वर है। धर्म तथा समाधि के फलस्वरूप अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्य से वह युक्त है। ईश्वर के संकल्पमात्र से धर्म उत्पन्न होता है, किसी प्रकार के क्रियानुष्ठान से नहीं। ईश्वर का वह धर्म ही प्रत्येक आत्मा के धर्माधर्म संचय की तथा पृथ्वी आदि भूतों की प्रवृत्ति कराता है। - 'स्कन्ध पुराण' में ईश्वर स्वयं अपना परिचय इन शब्दों में देता है - . "ईश एवाहमत्यर्थं न च मामीशते परः। ददामि च सदैश्वर्यमीश्वरस्तेन कीर्त्यते॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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