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________________ ७८ ****** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ************** अर्थ - आत्मा अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापी, क्रिया- रहित, अकर्त्ता, निर्गुण और सूक्ष्म है, ऐसा कपिल - दर्शन का सिद्धान्त है। 'सांख्य कारिका' में कहा है कि Jain Education International - " तस्मान्नबध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति, कश्चित् । "1 संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥' अर्थ - न कोई बंधता है, न मुक्त होता है और न कोई संसार में परिभ्रमण करता है। बन्ध, मोक्ष और परिभ्रमण तो नाना प्रकार के आश्रय वाली प्रकृति को ही होते हैं । नित्यवादियों का उपरोक्त सिद्धान्त भी असत्य है। संयोग-सम्बन्ध से आबद्ध आत्मा को एकान्त मुक्त मानना असत्य है। जीवों में विभिन्नता, ज्ञान-अज्ञान में वैविध्यता, रुचि, अवस्था, दशा, वेदन आदि में अन्तर प्रत्यक्ष बतला रहा है कि प्रत्येक आत्मा बद्ध है । उदय और क्षयोपशम की भिन्नता प्रत्यक्ष देखी जाती है। रूपान्तर, अवस्थान्तर, ज्ञानान्तर, वेदान्तर आदि प्रत्यक्ष बतला रहे हैं कि आत्मा एकान्त नित्य नहीं, किन्तु विविध प्रकार के परिणामों से परिणत होता हुआ नित्यानित्य है । बन्ध, वेदन, गत्यंतर, भोग, रति, अरति आदि सब प्रकृति के ही होते हों और आत्मा सर्वथा अक्रिय एवं निर्लिप्त रहती हो, तो आत्मा में तदनुरूप परिणति, अनुभव, अध्यवसाय एवं वेदनादि नहीं होना चाहिए। किन्तु वैसा होना सभी के अनुभव की बात है। अतएव प्रत्यक्ष से ही असत्य है । यदि केवल प्रकृति में ही हलन चलनादि होते हों, तो मुर्दे शरीर में भी होना चाहिए। किन्तु यह बात भी असत्य है। आत्मयुक्त शरीर ही क्रिया करता है। वह क्रिया आत्म-प्रेरित होने के कारण आत्मा निष्क्रिय नहीं, सक्रिय है। आत्मा के कर्त्ता होने ही बुद्धि में परिवर्तन होता है, चिन्तनादि होता है। पूर्वरूप का त्याग और उत्तररूप का ग्रहण, अपरिणामी नित्य में नहीं हो सकता, न सुख-दुःख वेदन (भोग) ही हो सकता है। पूर्व रूप का त्याग और उत्तर रूप का स्वीकार आत्मा को परिणामी एवं सक्रिय सिद्ध करता है। अतएव आत्मा को नित्य, अपरिणामी एवं निष्क्रिय मानना मिथ्या है। आत्मा निर्गुणी और निर्लेप भी नहीं है। उसमें ज्ञान, उपयोग चेतनादि गुण हैं और रागद्वेषादि एवं. ज्ञानावरणादि युक्त है। अतएव आत्मा को निर्लेप मानना भी मिथ्या है। जैनियों में भी जो एकान्त निश्चयवादी हैं और आत्मा को एकान्त अकर्त्ता, अभोक्ता निर्बन्ध, निर्लिप्तादि मानते हैं, वे मृषावादी हैं। यदि आत्मा सर्वथा निर्लिप्त हो, तो फिर किसी भी प्रकार की साधना की आवश्यकता ही नहीं रहती। निर्गुणी और निर्लेप आत्मा का प्रकृति क्या कर सकती है ? यदि निर्लिप्त आत्मा को भी प्रकृति, क्रोधादि में अथवा अज्ञानादि में लिप्त कर दें, तो यह भी मानना पड़ेगा कि पुरुष (आत्मा या परमात्मा) से प्रकृति (जड़) जोरदार हुई, जो आत्मा को विविध भावों एवं रूपों में परिणत कर देती है। अतएव यह मान्यता भी असत्य है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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