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मृषावाद *************************************
मृषावाद जं वि इहं किंचि जीवलोए दीसइ सुकयं वा दुकयं वा एयं जदिच्छाए वा सहावेण वावि दइवतप्पभावओ वावि भवइ। णत्थेत्थ किंचि कयगं तत्तं लक्खणविहाणणियत्तीए कारियं एवं केइ जंपंति इड्डिरस-सायागारवपरा बहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोसं।
शब्दार्थ - जं वि - जो भी, इहं - इस, किंचि - कुछ, जीवलोए - जीवलोक में, दीसइ - दिखाई देते हैं, सुकयं - सुकृत, दुकयं - दुष्कृत, एयं - यह, जदिच्छाए - यदृच्छा से, सहावेण - स्वभाव से, वावि - अथवा, दइवतप्पभावओ - दैव-भाग्य के प्रभाव से, भवइ - होता है, णत्येत्थ - नहीं है, किंचि - कुछ भी, कयगं - कृतक, तत्तं - तत्त्व, लक्खणविहाणणियत्तीए - लक्षण विधान और नियति से, कारियं - किये गये हैं, जंपति - कहते हैं, इड्डि-रस-साया-गारवपरा - ऋद्धि, रस और साता के गर्व में गृद्ध बने, बहवे - बहुत-से, करणालसा - कर्त्तव्य में आलसी, परूति - प्ररूपणा करते हैं, धम्मवीमंसएणं- धर्म के विमर्श से, मोसं - मृषा। . ... भावार्थ - कोई ऋद्धि; रस और साता के गौरव में लिप्त बने हुए वादी कहते हैं कि - इस जीवलोक में जो कुछ सुकृत और दुष्कृत दिखाई देता है, यह सब यदृच्छा (अकस्मात्) से या स्वभाव से अथवा नियति के प्रभाव से है। पुरुषार्थ से उत्पन्न करने योग्य कुछ भी वस्तु नहीं है। नियति के द्वारा पदार्थों का लक्षण और विधान किया गया है अर्थात्-पदार्थ के स्वरूप और भेदों को उत्पन्न करने वाली नियति है। इस प्रकार कहने वाले वादी सम्यक् चारित्र में पुरुषार्थ करने में आलसी हैं। बहुत-से लोग धर्म की आलोचना करके, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म बतलाते हुए मिथ्या प्ररूपणा करते हैं।
विवेचन - सूत्रकार अब यदृच्छावादियों के मिथ्यावाद का उल्लेख करते हैं। यदृच्छा का अर्थ'इच्छानुसार' होता है। बिना किसी कारण के जो अकस्मात् हो जाये, अपने-आप बन जाये, अर्थात् बिना किसी निमित्त के कार्य होना-'यदच्छावाद' है। दैववाद-भवितव्यतावाद का समावेश भी इसी में होता है । यदृच्छावादी मानता है कि जिसको जो मिलता है या बिछुड़ता है अथवा सुख-दुःख जीवन-मरणादि सभी कार्य अपने आप ही होते रहते हैं। वे यहाँ काकतालीय न्याय देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार ताड़फल का गिरना और कौए का आना अकस्मात् ही होता है, उसी प्रकार सभी कार्य बिना किसी कारण के अकस्मात बनते रहते हैं। इसमें कोई अन्य शक्ति कारण नहीं बनती और न
* टीकाकार ने लिखा- 'यदृच्छावादीनो यथा-सर्व इश्वरेच्छया-यदृच्छया निष्पद्यते न कोऽपि कर्ता.........यह कुछ समझ में नहीं आता, क्योंकि ईश्वरेच्छा मानने पर तो कर्ता-निमित्त मानना पड़ता है। किन्तु यदृच्छावादी किसी निमित्त को नहीं मानता, अतएव विचारणीय है।
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