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________________ ८० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ पुरुषार्थ ही कारण बनता है। इस प्रकार अपने मत का प्रदर्शन करते हुए वे नास्तिकवादी लोग उपदेश करते हुए कहते हैं कि- . . दान, व्रत, पौषध, तप, संयम और ब्रह्मचर्यादि कल्याणकारी अनुष्ठानों का सेवन करके कष्ट उठाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इन अनुष्ठानों का कोई फल नहीं है। पर-भव में प्राप्त होने वाले फल का भोक्ता कोई आत्मा है ही नहीं, तो दान-व्रतादि का पालन व्यर्थ ही है। इसी प्रकार प्राणी-वध, मृषावाद, चोरी करना, पर-स्त्री गमन करना और परिग्रह रखने से कोई पापकर्म नहीं होता। वे मानते हैं कि यह सब स्वभाव से ही होता है, कर्म से नहीं। जैसे - _ 'कण्टकस्य प्रतीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता। __ वर्णाश्च ताम्रचूड़ानाम्, स्वभावेन भवन्तिहि॥' - कांटे की तीक्ष्णता, मयूर-पंखों की विचित्रता और मुर्गे के पंखों के रंग, ये सब स्वभाव से ही होते हैं। ___ प्रत्येक वस्तु की अपने स्वभाव के अनुसार ही उत्पत्ति, वृद्धि और स्थिति और विनाश होता है। आम के बीज में से आम ही निकलता है, नींबू नहीं। गाय से गधा, घोड़ा या हाथी उत्पन्न नहीं होता। स्वभाव के अनुसार ही सब कुछ होता है। स्वभाव के प्रतिकूल कुछ भी नहीं हो सकता। लोक में जो कुछ हो रहा है, हुआ और आगे जो कुछ होगा, वह सब स्वभाव का ही परिणाम है। __इस प्रकार स्वभाववादी नास्तिक कहते हैं। वे जीव, कर्म, गति-आगति, लोक-परलोक, पुण्यपाप और धर्माधर्म नहीं मानकर केवल स्वभाव को ही मानते हैं। यह उनका मृषावाद है। प्रत्येक कार्य किसी को लिए हुए होता है। विविधता एवं विचित्रता अपने-अपने कारण से उत्पन्न होती है केवल स्वभाव से नहीं होती। स्वभाववादी यह नहीं सोचता कि केवल वस्तु -स्वभाव से ही कार्य सिद्धि नहीं होती, पुरुषार्थ, काल आदि कारण भी आवश्यक हैं। आम के बीज में फल देने का स्वभाव होते हुए भी बिना पुरुषार्थ और काल आदि के फल नहीं मिलता। यदि उस बीज को कोई आग पर रख दे, तो वह और उसका स्वभाव जलकर नष्ट हो जाता है। यदि पत्थर या लकड़ी अथवा पेटी में पड़ा रहे तो भी स्वभाव फलप्रद नहीं होता। जब माली उसे भूमि में बोएगा, उचित समय पर पानी आदि देगा और विनाशक तत्त्वों से रक्षा करेगा, तभी वह स्वभाव, काल परिपक्व होने पर फल देगा। वह फल भी माली के भाग्य में होगा, तो मिलेगा अन्यथा उसेक पुरुषार्थ का फल कोई दूसरा ही भोगेगा। औषधि में रोग मिटाने का, भोजन में क्षुधा शान्त करने का और पानी में प्यास बुझाने का स्वभाव होते हुए भी पुरुषार्थ के बिना कार्य-साधक नहीं बनते। अतएव स्वभाववादी का एकान्तवाद मिथ्या है, . उसका वाद-मृषावाद है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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