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________________ 228 ** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ******************************************** ** ****** गुरुजन के निकट या गुरु के निर्देशानुसार गीतार्थादि मुनि के पास अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक, अतिचार रहित होकर, अनेषणा जनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे। इसके बाद शान्त चित्त सुखपूर्वक बैठे और मुहूर्त मात्र ध्यान करे तथा ध्यान और शुभयोग का आचरण करता हुआ ज्ञान का चिंतन एवं स्वाध्याय करे और अपने मन को श्रुत-चारित्र रूप धर्म में स्थापित करे। फिर आहार करता हुआ साधु मन में विषाद एवं व्यग्रता नहीं लाता हुआ मन को शुभ योग युक्त रखे। समाधि युक्त रखे। मन में धर्म की श्रद्धा, मोक्ष, अभिलाषा एवं कर्म-निर्जरा की भावना रखे। निग्रंथ-प्रवचन के प्रति वात्सल्य भाव को धारण करे, फिर हर्षपूर्वक उठ कर यथा-रत्नाधिक (जो अपने से संयम में बड़े हों उन) को क्रमानुसार भोजन करने के लिए आमन्त्रित करे और उनकी इच्छानुसार उन्हें भावपूर्वक भोजन देने के पश्चात् गुरुजन की आज्ञा प्राप्त होने पर उचित स्थान पर बैठे। विवेचन - अण्णाए - अज्ञात-"अज्ञातो-अनवगतो दायकजनेरयं श्रीमान् प्रव्रजितोऽस्ति इति म ज्ञातः अकथितः स्वयमेव यथाहं श्रीमान् पूर्वमभूवं इति।" अर्थात्-साधु अज्ञात रहे। दाता यह न जानता हो कि यह साधु श्रीमंत कुल से निकला है (या इसमें कोई विशेषता है) साधु भी अपना परिचय नहीं दे कि मैं गृहस्थवास में कोई दरिद्र या नंगा-भूखा नहीं, परन्तु श्रीमंत (या अधिकारी था) अथवा मैं ऐसा तपस्वी आदि हूँ। अपनी जाति सम्बन्ध आदि का परिचय नहीं दे। आहार करने की विधि संपमन्जिऊण ससीयं कायं तहा करयलं अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अगरहिए.. अणझोववण्णे अणाइले अलुद्धे अणत्तट्ठिए असुरसुरं. अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडियं आलोयभायणे जयं पयत्तेण ववगय-संजोग-मणिंगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायाणिमित्तं संजमभारवहणट्ठयाए भुंजेज्जा पाणधारणट्ठयाए संजएण समियं एवं आहारसमिइजोगेणं भाविओ भवइ अंतरप्या असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। शब्दार्थ - ससीयं - मस्तक सहित, कायं - शरीर को, तहा - तथा, करयलं - करतल को, संपमज्जिऊण - भली प्रकार से पूँज कर आहार करे, अमुच्छिए - मूर्छित न हो, अगिद्धे - गृद्ध न हो, अगढिए - आसक्त न हो, अगरहिए - गर्दा न करे, अणज्झोववण्णे - रस में मन को एकाग्रं न करे, अणाइले - भावों को दूषित न करे, अलुद्धे - लुब्ध न हो, अणत्तट्ठिए - स्व-स्वार्थ के साथ परार्थ पर भी ध्यान रखे, असुरसुरं - सुरसुर का शब्द नहीं करे, अचवचवं - चवचव की ध्वनि नहीं करे, अदुयं - बहुत शीघ्र आहार न करे, अविलंबियं - बहुत विलम्बपूर्वक भी आहार न करे, अपरिसाडियं - आहार के कण को नीचे नहीं गिरावे, आलोयभायणे - दिखाई देने वाले पात्र में, जयं पयत्तेण - यतनापूर्वक योगों को वश में रखे, ववगयसंजोगमणिंगालं - संयोजना तथा इंगाल दोष से रहित, विगयधूमं - धूम-दोष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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