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________________ पंचमी भावना-आदान निक्षेपण समिति 229 ************************************************************* वर्जित, अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं - गाड़ी के पहियों की धुरा में अंजन तथा घाव पर लेप के समान, संजमजायामायाणिमित्तं - संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए, संजमभारवहणट्ठायाए - संयमभार वहन करने के लिए, य - और, पाणधारणट्ठयाए - प्राण धारण करने के लिए, भुंजेज्जा - भोजन करे, एवं - इस प्रकार, आहारसमिइजोगेणं - आहार-समिति का, समियं - सम्यक् पालन करने वाले, संजएण - साधु की, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भाविओ भवई - भावित होती है, असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और अखण्डित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए - संयमधारी, सुसाहू - मोक्ष का साधक उत्तम साधु। भावार्थ - फिर मस्तक सहित शरीर तथा करतल को भली प्रकार से पूँज कर आहार करे। आहार करता हुआ साधु, आहार के स्वाद में मूर्च्छित नहीं होवे, गृद्ध, लुब्ध एवं आसक्त नहीं बने। अपना ही स्वार्थ नहीं सोचे। विरस या रस-रहित आहार हो, तो उसकी निन्दा नहीं करे। मन को रस में एकाग्र नहीं करे। मन में कलुषता नहीं लावे। रस लोलुप नहीं बने। भोजन करता हुआ 'सुरसुर' या 'चव चव' की ध्वनि नहीं होने दे। भोजन करने में न तो अति शीघ्रता करे और न अति धीरेविलम्बपूर्वक करे। भोजन करते समय आहार का अंश नीचे नहीं गिरावे। ऐसे भाजन में भोजन करे जो भीतर से भी पूरा दिखाई देता हो अथवा भोजन-स्थान अन्धकार युक्त नहीं हो। भोजन करता हुआ साधु अपने मन, वचन और काया के योगों को वश में रखे। भोजन को स्वादयुक्त बनाने के लिए उसमें कोई अन्य वस्तु नहीं मिलावे अर्थात् 'संयोजना दोष' और 'इंगाल दोष' नहीं लगावे। अच्छे आहार की सराहना भी नहीं करे। अनिच्छनीय आहार की निन्दा रूप 'धूम-दोष' भी नहीं लगावे। जिस प्रकार गाड़ी को सरलतापूर्वक चलाने के लिए उसकी धुरी में अंजन, तेल आदि लगाया जाता है और शरीर पर लगे हुए घाव को ठीक करने के लिए लेप-मरहम लगाया जाता है, उसी प्रकार संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए, संयम के भार को वहन करने के लिए तथा प्राण धारण करने के लिए भोजन करे। इस प्रकार आहार-समिति का सम्यक् रूप से पालन करने वाले साधु की अन्तरात्मा भावित होती है। उसकी चारित्र और भावना निर्मल विशुद्ध एवं अखण्डित है। वह संयमवंत अहिंसक साधु, मोक्ष का उत्तम साधक होता है। ... . विवेचन - इस चौथी भावना में आहार प्राप्ति और भोजन करने की कैसी उत्तम विधि बताई गई है ? ऐसी निर्दोष, उत्तम एवं परिपूर्ण विधि भी निग्रंथ-धर्म की ही विशेषता है। पंचमी भावना - आदान निक्षेपण समिति .. पंचमं आयाणणिक्खेवणसमिइ पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबलदंडग-रयहरण-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाई एयं वि संजमस्स उवबूहणट्ठयाए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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