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________________ अकल्पनीय-अनाचरणीय 301 **************************************************************** तालपंखा, लोहा, राँगा, ताँबा, शीशा, कांसा, चांदी, सोना, मणि, मोती वाले शीप, शंख, उत्तम (हाथी आदि के) दाँत, पत्थर, कांच, वस्त्र, चर्म आदि बहुमूल्य वस्तुएँ और इनसे बने हुए पात्र नहीं रखें। ये बहुमूल्य वस्तुएँ दूसरों के मन में लोभ उत्पन्न करती हैं और लोग इन्हें प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। इसलिए गुणवान् साधु, ऐसी वस्तुएँ नहीं लेवे। इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि और सण नामक सत्तरहवां धान्य एवं सभी प्रकार के धान्य, औषध भेषज तथा भोजन के लिए इन वस्तुओं का लेना और संग्रह रखना, निर्ग्रन्थों को मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से नहीं कल्पता है। क्यों नहीं कल्पता है, क्या कारण है नहीं कल्पने का'? अपरिमित (अनन्त) ज्ञान-दर्शन के धारक, शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक, जगत् के समस्त जीवों के वत्सल, त्रिलोक-पूज्य तीर्थंकर जिनवरेन्द्र ने इन त्रस-स्थावर जीवों की योनि (उत्पत्ति) स्थान देखा है। उन जीवों के खेद को जाना है। इन जीवों की योनि का विनाश करना निषिद्ध है। अनाचरणीय है। श्रमणसिंह ने सजीव वस्तुओं को भोजनादि कार्य में लेना वर्जित किया है। - जंवि य ओयणकुम्मास-गंज-तप्पण-मंथु-भुजिय-पलल-सूव-सक्कुलि-वेढिमवरसरक-चुण्ण-कोसग-पिंड-सिहरिणि-वट्ट-मोयग-खीर-दहि-सप्पि-णवणीय-तेल्लगुड-खंड-मच्छंडिय-महु-मज-मंस-खजग-वंजण-विहिमाइयं पणीयं उवस्सए परघरे व रण्णे ण कप्पड़ तं वि सण्णिहिं काउं सुविहिया णं। - शब्दार्थ - ओयण - ओदन-भात, कुम्मास - उड़द, गंज - एक प्रकार का धान्य, तप्पण - सत्तू, मंथू- बोर का चूर्ण, भुजिय - भूना हुआ धान्य, पलल - तिल के फूणों का चूर्ण, सूव - दाल, क्कुलि - तिलपपड़ी, वेडिम - वेढमी पूरी, वरसरक - एक प्रकार का धान्य, चुण्णकोसग - चूर्णकोशक, पिंड.- गुड़ादि का पिंड, सिहरिणि - शिखरिणी-गुड़ मिश्रित दही, वट्टग - बड़ा, मोयग - मोदक-लड्डु, खीर - क्षीर, दही - दही, सप्पि - घृत, णवणीय - मक्खन, तेल्ल - तेल, गुड - गुड़, खंड - खाँड, मच्छंडिए - मिश्री, महु - मधु, मज - मद्य, मंस - मांस, खजग - खाजे, वंजणविहिमाइयं - साग आदि, पणीयं - प्रणीत आहार, उवस्सए - उपाश्रय में, परघरे - दूसरों के घर में, वा रणे - अथवा वन में, ण कप्पड़ - नहीं कल्पता है, सण्णिहिं काउं - संचय कर रखना, सुविहियाणं - श्रेष्ठ साधुओं को। भावार्थ - परिग्रह-त्याग महाव्रत के पाक साधु को आगे कहीं जाने वाली वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए। यथा-ओदन (चावल) कुम्मास (कुल्माष-उड़द) गंज (धान्य विशेष) सत्तू, बोर का चूर्ण, भूना हुआ चना आदि धान्य, पलल (तिलपिष्ट), दालं, तिलपपड़ी, वेढिम पूरी, वरसरक (खाद्य विशेष) चूर्ण-कोशख (कचोड़ी जैसा) पिण्ड (गुड़ आदि) शिखरिनी (गुड़ मिश्रित दही या श्रीखण्ड) वट्टक (बड़ा) मोदक, क्षीर (दूध), दही, घृत, मक्खन, तेल, गुड़, खाँडसारी, मिश्री, मधु, मद्य, मांस, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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